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पद्मपुराणे
लोकशास्त्रातिनिःसारसृणिना नैष शक्यते । वशीकत्तु मनोहस्ती कुगतिं नयते ततः ॥१५॥ सर्वज्ञोक्त्यशेनैव दयासौख्यान्विते पथि । शक्यो योजयितुं युक्तमतिना भव्यजन्तुना ॥१५७॥ शृणु संक्षेपतो वक्ष्येऽभिमानाशीलवर्णनम् । परम्परासमायातमाख्यानकं विपश्चिताम् ॥१५॥ भासीजनपदो यस्मिन् काले रोगानिलाहतः । धान्यग्रामात्तदा पन्या स हैको निर्गतो द्विजः ॥१५॥ आसीनोदननामासावभिमानाभिचाङ्गना। अग्निनाम्ना समुत्पन्ना मानिन्यामभिमानिनी ॥१६॥ नोदनेनाभिमानासौ क्षुद्वाधाविह्वलात्मना । त्यक्ता गजवने प्राप्ता पतिं कररुहं नृपम् ॥१६१॥ पुष्पप्रकीर्णनगरस्वामी लब्धप्रसादया। पादेन मस्तके जातु तयाऽसौ ताडितो रतौ ॥१६२॥ आस्थानस्थः प्रभातेऽसौ पर्यपृच्छद् बहुश्रतान् । पादेनाऽऽहन्ति यो राजशिरस्तस्य किमिष्यते ॥१६॥ तस्मिन् बहवः प्रोचुः सभ्या: पण्डितमानिनः । यथाऽस्य च्छिद्यते पादः प्राणर्वा स वियोज्यताम् ॥१६॥ हेमाङ्कस्तत्र नामैको विप्रोऽभिप्रायकोविदः । जगाद तस्य पादोऽसौ पूजां सम्प्राप्यतां पराम् ॥१६५॥ कोविदः कथमीहक त्वमिति पृष्टः स भूभृता । इष्टस्त्रीदन्तशस्त्रीयं क्षतमिष्टं स्वमैक्षयत् ॥१६६॥ अभिप्रायविदित्येष हेमाङ्कस्तेन भूभृता । प्रापितः परमामृद्धिं सर्वेभ्यश्चान्तरं गतम् ॥१६७॥ हेमाङ्कस्य गृहे तस्य नाम्ना मित्रयशाः सती । अमोघशरसज्ञस्य भार्गवस्य प्रियाऽवसत् ॥१६॥
इस प्रकार मूठ-मूठ ही पतिव्रताका अभिमान रखने वाली स्त्री पति-व्रता नहीं है ।।१५।। यह मन रूपी. हाथी लौकिक शास्त्ररूपी निर्बल अंकुशके द्वारा वश नहीं किया जा सकता इसलिए वह इस जीवको कुमतिमें ले जाता है ॥१५६॥ उत्तम बुद्धिको धारण करने वाला भव्यजीव, जिनवाणी रूपी अङ्कशके द्वारा ही मनरूपी हाथीको दया और सुखसे सहित समीचीनमार्गमें ले जा सकता है ॥१५७॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अब मैं विद्वानोंके बीच परम्परासे आगत अभिमानाके शील वणेनकी कथा संक्षेपमें कहता हूँ सो सुन ।।१५८।।
वे कहने लगे कि जिस समय समस्त देश रोगरूपी वायुसे पीडित था उस समय धान्यग्राम का रहने वाला एक ब्राह्मण अपनी स्त्रीके साथ उस ग्रामसे बाहर निकला ।।१५६।। उस ब्राह्मगका नाम नोदन था और उसकी स्त्रीका नाम अभिमाना था। अभिमाना अग्निनामक पितासे मानिनी नामक स्त्रीमें उत्पन्न हुई थी तथा अत्यधिक अभिमानको धारण करने वाली थी ॥१६०॥ तदनन्तर भूख की बाधासे जिसकी आत्मा विह्वल हो रही थी ऐसे नोदनने अभिमानाको छोड़ दिया । धीरे धीरे अभिमाना हाथियोंके वनमें पहुंची वहाँ उसने राजा कररहको अपना पति बना लिया ॥१६१॥ राजा कररुह पुष्पप्रकीर्ण नगरका स्वामी था। तदनन्तर जिसे पतिकी प्रसन्नता प्राप्त थी ऐसी उस अभिमानाने किसी समय रतिकालमें राजा कररहके शिरमें अपने पैरसे आघात किया अर्थात् उसके शिरमें लात मारी ॥१६२॥ दूसरे दिन प्रभात होने पर जब राजा सभामें बैठा तब उसने बहुश्रुत विद्वानोंसे पूछा कि जो राजाके शिरको पैरके आघातसे पीडित करे उसका क्या करना चाहिए ॥१६३।। राजाका प्रश्न सुन, सभामें अपने आपको पण्डित माननेवाले जो बहुतसे सभासद बैठे थे उन्होंने कहा कि उसका पैर काट दिया जाय अथवा उसे प्राणोंसे वियुक्त किया जाय ? ॥१६॥ उसी सभामें राजाके अभिप्रायको जाननेवाला एक हेमाङ्क नामका ब्राह्मण भी बैठा थ सो उसने कहा कि राजन् , उसके पैरकी अत्यधिक पूजा की जाय अर्थात् अलंकार आदिसे अलंकृत कर उसका सत्कार किया जाय ॥१६५।। राजाने उससे पूछा कि तुम इस प्रकार विद्वान् कैसे हुए अर्थात तुमने यथार्थ बात कैसे जान ली ? तब उसने कहा कि इष्टस्त्रीके इस दन्तरूपी शस्त्रने अपने इष्टको अपने द्वारा घायल दिखलाया है अर्थात् आपके ओठमें स्त्रीका दन्ताघात देख कर मैंने सव रहस्य जाना है ॥१६६।। यह सुन राजाने 'यह अभिप्रायका जानने वाला है। ऐसा समझ हेमाङ्क को बहुत सम्पदा दी तथा अपनी बिकटता प्राप्त कराई ॥१६७॥ हेमाङ्कके घरमें अमोघशर
१. अंकुशेन म० । २. त्यक्त्वा म० । ३. दृष्टस्त्रीदन्तशस्त्री ज०, म० । ४. गता म०।
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