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पद्मपुराणे
पादौ मुनेः परामृष्य पत्थुर्गानं 'समास्पृशत् । देवी ततः परिप्राप्तः सिंहेन्दुर्जीवितं पुनः ॥१२॥ चैत्यस्य वन्दनां कृत्वा भक्त्या केसरिचन्द्रमाः । प्रणनाम मुनि भूयो भूयो दयितया समम् ॥१८॥ उद्गते भास्करे साधुः समाप्तनियमोऽभवत् । प्राप्तो विनयदत्तस्तं वन्दनार्थमुपासकः ॥१८॥ सन्देशाच्छावको गत्वा पुरं श्रीवद्धिताय तम् । सिंहेन्दुं प्राप्तमाचख्यौ श्रुत्वा सन्नडुमुद्यतः ॥१८५॥ ततो यथावदाख्याते प्रीतिसङ्गतमानसः । महोपचारशेमुष्या श्यालं श्रीवड़ितोऽगमत् ॥१८६॥ ततो बन्धुसमायोग प्राप्तः परमसम्मदः । श्रीवद्धितः सुखासीनं पप्रच्छेति मयं नतः ॥१८॥ भगवन् ज्ञातुमिच्छामि पूर्व जननमात्मनः । स्वजनानां च सत्साधुस्ततो वचनमब्रवीत् ॥८॥ भासीच्छोभपुरे नाम्ना भद्राचार्यों दिगम्बरः । अमलाख्यः पुरस्यास्य स्वामी गुणसमुत्करः ॥१८॥ स तं प्रत्यहमाचार्य सेवितुं याति सन्मनाः । अन्यदा गन्धमाजघ्री देशे तत्र सुदुःसहम् ।। १६०॥ स तं गन्धं समाधाय कुष्टिन्यङ्गलमुद्गतम् । पद्यामेव निजं गेहं गतोऽसहनको द्रतम् ॥१६॥ अन्यतः कुष्टिनी सा तु प्राप्ताचैत्यान्तिके तदा । विश्रान्ताऽऽसीद्मणेभ्योऽम्या दुर्गन्धोऽसौ विनिर्थयौ ॥१६२॥ भणुव्रतानि सा प्राप्य भद्राचार्यसकाशतः । देवलोकं गता न्युत्वाऽसौ कान्ता शीलवत्यभूत् ॥१३॥ यस्त्वसावमलो राजा पुत्रन्यस्तनृपक्रियः । सन्तुष्टः सोऽष्टभिर्मामैः श्रावकत्वमुपाचरत् ॥१६४||
सिंहेन्दुको उनके चरणोंके समीप लिटा दिया ।।१८१॥ सिंहेन्दुको स्त्रीने मुनिराजके चरणोंका स्पर्श कर पतिके शरीरका स्पर्श किया जिससे वह पुनः जीवित हो गया ॥१८२॥ तदनन्तर सिंहेन्दुने भक्तिपूर्वक प्रतिमाकी वन्दना की और उसके बाद आकर अपनी स्त्रीके साथ बार-बार मुनिराजको प्रणाम किया ॥१३॥
अथानन्तर सूर्योदय होनेपर मुनिराजका नियम समाप्त हुआ, उसी समय वन्दनाके लिए विनयदत्त नामका श्रावक उनके समीप आया ।।१८४॥ सिंहेन्दुके संदेशसे श्रावकने नगरमें जाकर श्रीवर्धितके लिए बताया कि राजा सिंहेन्दु आया है। यह सुन श्रीवर्धित युद्ध के लिए तैयार हो गया ॥१८।। तदनन्तर जब यथार्थ बात मालूम हुई तब प्रीतियुक्त चित्त होता हुआ श्रीवर्धित सन्मान करनेकी भावनासे अपने सालेके पास गया ।।१८६॥ तत्पश्चात् इष्टजनोंका समागम प्राप्त कर हर्षित होते हुए श्रीवर्धितने सुखसे बैठे हुए मय मुनिराजसे विनयपूर्वक पूछा कि हे भगवन् ! मैं अपने तथा अपने परिवारके लोगोंके पूर्वभव जानना चाहता हूँ। तदनन्तर उत्तम मुनिराज इस प्रकार वचन बोले कि ॥१८७-१८८॥
शोभपुर नगरमें एक भद्राचार्य नामक दिगम्बर मुनिराज थे। उस नगरका राजा अमल था जो कि गुणोंके समूहसे सुशोभित था ॥१८।। उत्तम हृदयको धारण करनेवाला अमल प्रतिदिन उन आचार्यकी सेवा करनेके लिए आता था। एक दिन आनेपर उसे उस स्थानपर अत्यन्त दुःसह दुर्गन्ध आई ॥१६०॥ कोढिनोके शरीरसे उत्पन्न हुई वह दुर्गन्ध इतनी भयंकर थी कि राजा उसे सहन नहीं कर सका और पैदल ही शीघ्र अपने घर चला गया ॥१६१॥ वह कोदिनी स्त्री किसी अन्य स्थानसे आकर उस मन्दिरके समीए ठहरी थी, उसीके घावोंसे वह दुर्गन्ध निकल रही थी ।।१६२॥ उस स्त्रीने भद्राचार्यके पास अणुव्रत धारण किये जिसके फल
वह मरकर स्वगे गई और वहाँसे च्युत होकर यह शीला नामक तुम्हारी स्त्री हुई है ॥१६३।। वहाँ जो अमल नामका राजा था उसने सब राज्यकार्य पुत्रके लिए सौंप दिया और स्वयं
१. समापृशत् म०।
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