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अशीतितम पर्व
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विधवा दुःखिनी तस्मिन् वसन्ती भवने सुतम् । अशिक्षयदसावेवं स्मृतभर्तृगुणोत्करा ॥१६॥ सुनिश्चितारमना येन बाल्ये विद्यागमः कृतः । हेमाङ्कस्य यति तस्य विदुषः पश्य पुत्रक ॥१७॥ शरविज्ञाननिधूतसर्वभार्गवसम्पदः । पितुस्तथाविधस्य त्वं तनयो वालिशोऽभवः ॥१७॥ वाष्पविप्लुतनेत्रायाः श्रुत्वा मातुर्वचस्तदा । प्रशाम्यतां गतो विद्यां शिक्षितुं सोऽभिमानवान् ॥१७२॥ ततो व्याघ्रपुरे सवाः कलाः प्राप्य गुरोगृहे। तत्प्रदेशसुकान्तस्य सुतां हृत्वा विनिर्गतः ॥७३॥ तस्याः शालाभिधानायाः कन्यकाया सहोदरः । सिंहेन्दरिति निर्यातो युद्धार्थी पुरुविक्रमः ॥१७॥ एकको बलसम्पन्ने जित्वा सिंहेन्दुमाहवे । श्रीवर्द्धितोऽन्वितो मात्रा सम्प्राप्तः परमा तिम् ।।१७५॥ महाविज्ञानयुक्तेन तेन प्रख्यातर्कातिना । लब्धं कररुहाद्राज्यं नगरे पोदनाह्वये ।।१७६।। सुकान्ते पञ्चतां प्राप्ते सिंहेन्दुर्युतिशत्रुणा । अभिभूतः समं देव्या निरैद्गेहात सुरङ्गया ॥१७॥ सम्भ्रान्तः शरणं गच्छन् भगिनी खेदवान् भृशम् । प्राप्तस्ताम्बूलिकै रं वाहितः सह भार्यया ।।१७।। भानावस्तङ्गतेऽभ्याशं पोदनस्य स सङ्गतः । मुक्तो राजभ रात्रौ त्रासितो गहनं श्रितः ॥१७६।। महोरगेण सन्दष्टस्तं देवी परिदेविनी । कृत्वा स्कन्धे परिप्राप्ता देशं यत्र मयः स्थितः ॥१८॥ वज्रस्तम्भसमानस्य प्रतिमास्थानीयुषः । महालब्धेः समीपस्थ पादयोस्तमतिष्ठिपत् ॥१८॥
नामक ब्राह्मणकी मित्रयशा नामकी पतिव्रता पत्नी रहती थी। वह बेचारी विधवा तथा दुःखिनी होकर उसी घरमें निवास करती और अपने पतिके गुणोंका स्मरण कर पुत्रको ऐसी शिक्षा देती थी ॥१६८-१६६।। कि हे पुत्र ! जिसने बाल्य अवस्थामें निश्चिन्तचित्त होकर विद्याभ्यास किया था उस विद्वान् हेमाङ्कका प्रभाव देख ॥१७०॥ जिसने बाणविद्याके द्वारा समस्त ब्राह्मणों अथवा परशुरामको सम्पदाको तिरस्कृत कर दिया था उस पिताके तू ऐसा मूर्ख पुत्र हुआ है ।।१७१॥
आँसुओंसे जिसके नेत्र भर रहे थे ऐसी माताके वचन सुन उसका श्रीवर्धित नामका अभिमानी बालक माताको सान्त्वना देकर उसी समय विद्या सीखने के लिए चला गया ।।१७२।।
तदनन्तर व्याघ्रपुर नगरमें गुरुके घर समस्त कलाओंको सीख विद्वान हुआ और वहाँके - राजा सुकान्तकी पुत्रीका हरणकर वहाँ से निकल भागा ॥१७३।। पुत्रीका नाम शीला था और उसके भाईका नाम सिंहेन्दु था, सो प्रबल पराक्रमका धारक सिंहेन्दु बहिनको वापिस लानेके लिए युद्धकी इच्छा करता हुआ निकला ॥१७४।। परन्तु श्रीवर्धित अस्त्र-शस्त्रमें इतना निपुण हो गया था कि उसने अकेले ही सेनासे युक्त सिंहेन्दुको युद्ध में जीत लिया और वह घर आकर तथा मातासे मिलकर परम सन्तोष को प्राप्त हुआ ॥१७५।। श्रीवर्धित महाविज्ञानी तो था ही धीरे-धीरे उसका यश भी प्रसिद्ध हो गया, अतः उसे राजा कररुहसे पोदनपुर नगरका राज्य मिल गया ॥१७६|| कालक्रमसे जब व्याघ्रपुरका राजा सुकान्त मृत्युको प्राप्त हो गया तब तिनामक शत्रुने उसके पुत्र सिंहेन्दुपर आक्रमण किया जिससे भयभीत हो वह अपनी स्त्रीके साथ एक सुरंग द्वारा घरसे बाहर निकल गया ॥१७७॥ वह अत्यन्त घबड़ा गया था तथा बहत खिन्न होता हुआ बहिनकी शरणमें जा रहा था। मार्गमें तंबोलियोंका साथ हो गया सो उनका भार शिरपर रखते हुए वह अपनी स्त्री सहित सूर्यास्त होनेके बाद पोदनपुरके समीप पहुँचा। वहाँ राजाके योद्धाओंने उसे पकड़कर धमकाया सो जिस-किसी तरह छूटकर भयभीत होता हुआ वनमें पहुँचा ॥१७८-१७६। सो वहाँ एक महासर्पने उसे डंस लिया जिससे विलाप करती हुई उसकी स्त्री उसे कन्धेपर रखकर उस स्थानपर पहुंची जहाँ मयमुनि विराजमान थे ॥१८०॥ महाअद्रियोंके धारक मयमुनि प्रतिमा योग धारण कर वन स्तम्भके समान निश्चल खडे थे.सो रानीने
१. पुरविक्रमः म० । २. ऽभ्यास म० । ३. राजन् म० । ४. परिदेवनी म० | १४-३
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