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पद्मपुराणे
गृहीत्वा तांस्तयोर्मात्रोः सकाशं भरतो ययौ । शोकिन्यौ वाष्पपूर्णाच्यौ ते समानन्दिते च तैः ॥१०१॥ पन्नाभचक्रभृन्मात्रोदूतानां च सुसंकथा । मनःप्रह्लादिनी यावद् वर्तते भूतिशंसिनी ।।१०२।। रवेरावृत्य पन्थानं तावत्तत्र सहस्रशः । हेमरत्नादिसम्पूर्णैर्वाहनैरतिगत्वरैः ॥१०३।। विचित्रजलदाकाराः प्रापुर्वैद्याधरा गणाः । जिनावतरणे काले देवा इव महौजसः ॥१०॥ ततस्ते व्योमपृष्ठस्था नानारत्नमयीं पुरि । वृष्टिं मुमुचुरुद्योतपूरिताशां समन्ततः ॥१०५॥ परितायामयोध्यायामेकैकस्य कुटुम्बिनः । गृहेषु भूधराकाराः कृता हेमादिराशयः ॥१०६।। जन्मान्तरकृतश्लाघ्यकर्मा स्वर्गच्युतोऽथवा । लोकोऽयोध्यानिवासी यो येन प्राप्तस्तथा श्रियम् ॥१०॥ तस्मिन्नेव पुरे दत्ता घोषणाऽनेन वस्तुना । मणिचामीकराद्येन यो न तृप्तिमुपागतः ॥१०८। प्रविश्य स नरः स्त्री वा निर्भयं पार्थिवालयम् । द्रव्येण पूरयत्वाऽऽत्मभवनं निजयेच्छया ॥१६॥ श्रुत्वा तां घोषणां सर्वस्तस्यां जनपदोऽगदत् । अस्माकं भवने शून्यं स्थानमेव न विद्यते ॥११॥ विस्मयादित्यसम्पर्कविकचाननपङ्कजाः । शशंसुर्वनिताः पद्मं कृतदारिद्रयनाशनाः ॥११॥ आगत्य बहुभिस्तावदः खेचरशिल्पिभिः । रूप्यहेमादिभिर्ले पैलिप्ता भवनभूमयः ॥११२॥ चैत्यागाराणि दिव्यानि जनितान्यतिभूरिशः । महाप्रासादमालाश्च विन्ध्यकूटावलीसमाः ॥११३॥ सहस्रस्तम्भसम्पन्ना मुक्तादामविराजिताः। रचिता मण्डपाश्चित्राश्चित्रपुस्तोपशोभिताः ॥११॥ खचितानि महारत्नौराणि करभास्वरैः । पताकालीसमायुक्तास्तोरणौघाः समुच्छ्रिताः ॥११५॥ अनेकाश्चर्यसम्पूर्णा प्रवृत्तसुमहोत्सवा । साऽयोध्या नगरी जाता लङ्कादिजयकारिणी ॥११६॥
तदनन्तर भरत उन विद्याधरोंको लेकर उन माताओंके पास गया और विद्याधरोंने निरन्तर शोक करने तथा अश्रुपूर्ण नेत्रोंको धारण करनेवालो उन माताओंको आनन्दित किया ॥१०१।। राम-लक्ष्मणकी माताओं और उन विद्याधर दूतोंके बीच मनको प्रसन्न करने तथा उनकी विभूतिको सूचित करनेवाली यह मनोहर कथा जबतक चलती है तबतक सुवर्ण और रत्नादिसे परिपूर्ण हजारों शीघ्रगामी वाहनोंसे सूर्यका मार्ग रोककर रङ्ग-विरङ्गे मेघोंका आकार धारण करनेवाले हजारों विद्याधरोंके झुण्ड उस तरह आ पहुँचे जिस तरह कि जिनेन्द्रावतारके समय महातेजस्वी देव आ पहुँचते हैं ।।१०२-१०४॥ तदनन्तर आकाशमें स्थित उन विद्याधरोंने सब
ओरसे दिशाओंको प्रकाशके द्वारा परिपूर्ण करनेवाली नानारत्नमयी वृष्टि छोड़ी ॥१०५॥ अयोध्याके भर जाने पर हर एक कुटुम्बके घरमें पर्वतोंके समान सुवर्णादिकी राशियाँ लग गई ॥१०६॥ जान पड़ता था कि अयोध्या निवासी लोगोंने जन्मान्तरमें पुण्य कर्म किये थे अथवा स्वर्गसे चयकर वहाँ आये थे इसीलिए तो उन्हें उस समय उस प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त हुई थी ।।१०७॥ उसी समय भरतने नगरमें यह घोषणा दिलवाई कि जो रत्न तथा स्वर्णादि वस्तुओंसे सन्तोषको प्राप्त नहीं हआ हो वह पुरुष अथवा स्त्री निर्भय हो राजमहल में प्रवेश कर अपनी इच्छानुसार द्रव्यसे अपने घरको भर ले ॥१८-१०६॥ उस घोषणाको सुनकर अयोध्यावासी लोगोंने आकर कहा कि हमारे घर में खाली स्थान ही नहीं है ॥११०॥ विस्मयरूपी सूर्यके संपर्कसे जिनके मुख कमल खिल रहे थे तथा जिनकी दरिद्रता नष्ट हो चुकी थी ऐसी स्त्रियाँ रामकी स्तुति कर रही थीं ॥१११।। उसी समय बहुतसे चतुर विद्याधर कारीगरोंने आकर चाँदी तथा सुवर्णादिके लेपसे भवनकी भूमियोंको लिप्त किया ॥११२॥ अच्छे-अच्छे बहुतसे जिन-मन्दिर तथा विन्ध्याचलके शिखरोंके समान अत्यन्त उन्नत बड़े-बड़े महलों के समूहकी रचना की ॥११३॥ जो हजारों खम्भोंसे सहित थे, मोतियोंको मालाओंसे सुशोभित थे, तथा नाना प्रकारके पुतलोंसे युक्त थे ऐसे विविध प्रकारके मण्डप बनाये ॥११४॥ दरवाजे किरणोंसे चमकते हुए बड़े-बड़े रत्नोंसे खचित किये तथा पताकाओंकी पंक्तिसे युक्त तोरणोंके समूह खड़े किये ॥११५॥ इस तरह जो अनेक
१. पूरयित्वा म०, ज० । २. करभस्वरैः म० ।
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