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पद्मपुराणे
कुररीव कृताक्रन्दा शावकेन वियोगिनी । उसः शिरश्च सा हन्ति कराभ्यां विह्वला भृशम् ॥७३॥ हा लचमीधर सजात जननीमेहि जीवय । द्रुतं वाक्यं प्रयच्छेति विलापं सा निषेवते ॥७४॥ तनयायोगतीवाग्निज्वालालीढशरीरके । दर्शनामृतधाराभिर्मातरौ नयतं शमम् ॥७५॥ एवमुक्तं निशम्यैतौ साती दुःखितौ भृशम् । विमुक्तानी समाश्वासं खेचरेशैरुपाहृतौ ॥७६॥ उवाच वचनं पद्मः कथञ्चिद्धर्यमागतः । अहो महोपकारोऽयमस्माकं भवता कृतः ॥७७॥ विकर्मणा स्मृतेरेव जननी नः परिच्युता । स्मारिता भवता साऽहं किमतोऽन्यन्महत्प्रियम् ॥७८॥ पुण्यवान् स नरो लोके यो मातुर्विनये स्थितः । कुरुते परिशुश्रूषां किङ्करत्वमुपागतः ॥७॥ एवं मातृमहास्नेहरसप्लावितमानसः । अपूजयदवद्वारं लचमणेन समं नृपः ॥८॥ अतिसम्भ्रान्तचित्तश्च समाह्वाय विभीषणम् । प्रभामण्डलसुग्रीवसन्निधावित्यभाषत ।।८॥ महेन्द्रभवनाकारे भवनेऽस्मिन् विभीषण । तव नो विदितोऽस्माभिर्यातः कालो महानपि ।।२॥ गृष्मादित्यांशुसन्तानतापितस्यैव सत्सरः । चिरादवस्थितं चित्ते मातृदर्शनमद्य मे ॥३॥ स्मृतमात्रवियोगाग्नितापितान्यतिमात्रकम् । तद्दर्शनाम्बुनाङ्गानि प्रापयाम्यतिनिर्वृतिम् ।।८।। अयोध्यानगरी द्रष्टुं मनो मेऽत्युत्सुकं स्थितम् । सा हि माता द्वितीयेव स्मरयत्यधिक वरा ॥५॥ ततो विभीषणोऽवोचत् स्वामिन्नेवं विधीयताम् । यथाज्ञापयसि स्वान्तं देवस्योपैतु शान्तताम् ॥८६॥
वियोगसे उसे न आहारमें, न शयनमें, न दिनमें और न रात्रिमें थोड़ा भी आनन्द प्राप्त होता है ॥७२।। वह पुत्र वियोगसे कुररीके समान रुदन करती रहती है तथा अत्यन्त विह्वल हो दोनों हाथोंसे छाती और शिर पीटती रहती है ।।७३।। 'हाय लक्ष्मण बेटा ! आओ माताको जीवित करो, शीघ्र ही वचन बोलो' इस प्रकार वह निरन्तर विलाप करती रहती है ।।७४॥ पुत्रोंके वियोगरूपी तीव्र अग्निकी ज्वालाओंसे जिनके शरीर व्याप्त हैं ऐसी दोनों माताओंको दर्शनरूपी अमृतको धाराओंसे शान्ति प्राप्त कराओ ॥७॥ यह सुनकर राम, लक्ष्मण दोनों भाई अत्यन्त दुःखी हो उठे, उनके नेत्रोंसे आँसू निकलने लगे। तब विद्याधरोंने उन्हें सान्त्वना प्राप्त कराई।।७६।।
तदनन्तर किसी तरह धैर्यको प्राप्त हुए रामने कहा कि अहो ऋषे! आपने हमारा बड़ा उपकार किया ।। ७७।। खोटे कर्मके उदयसे माता हम लोगोंकी स्मृतिसे ही छूट गई थी सो आपने उसका हमें स्मरण करा दिया। इससे प्रिय बात और क्या हो सकती है ? ||७८॥ संसारमें वह मनुष्य बड़ा पुण्यात्मा है जो माताकी विनयमें तत्पर रहता है तथा किङ्करभावको प्राप्त हो उसकी सेवा करता है ॥७६।। इस प्रकार माताके महास्नेहरूपो रससे जिनका मन आद्र हो रहा था ऐसे राजा रामचन्द्रने लक्ष्मणके साथ नारदको बहुत पूजा की ॥८०॥ और अत्यन्त संभ्रान्तचित्त हो विभीषणको बुलाकर भामण्डल तथा सुग्रीवके समीप इस प्रकार कहा कि हे विभीषण ! इन्द्रभवनके समान आपके इस भवनमें हम लोगोंका बिना जाने ही बहुत भारी काल व्यतीत हो गया है ॥८१-८२॥ जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंके समूहसे सन्तापित मनुष्यके हृदयमें सदा उत्तम सरोवर विद्यमान रहता है उसी प्रकार हमारे हृदयमें यद्यपि चिरकालसे माताके दर्शनकी लालसा विद्यमान थी तथापि आज उस वियोगाग्निके स्मरण मात्रसे मेरे अङ्गाअङ्ग अत्यन्त सन्तप्त हो उठे हैं सो मैं माताके दर्शन रूपी जलके द्वारा उन्हें अत्यन्त शान्ति प्राप्त कराना चाहता हूँ ।।८३-८४॥ आज अयोध्यानगरीको देखनेके लिए मेरा मन अत्यन्त उत्सुक हो रहा है क्योंकि वह दूसरी माताके समान मुझे अधिक स्मरण दिला रही है ।।८।।
तदनन्तर विभीषणने कहा कि हे स्वामिन् ! जैसी आज्ञा हो वैसा कीजिये । आपका हृदय
१. विकर्मणः म० । २. विनयस्थितः क०। ३. वत्सरः म०, मत्सरः ज०, क, ख०। ४. कां वरा
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