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एकाशीतितमं पर्व .
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शिखान्तिकगतप्राणो नारदः पुरुवेपथुः । विभीषणगृहद्वारं प्रविष्टः सद्गुहाकृतिम् ॥५॥ पद्माभं दूरतो दृष्ट्वा सहसोद्भ्रान्तमानसः । अब्रह्मण्यमिति स्फीतं प्रस्वेदी मुमुचे स्वरम् ॥५६॥ श्चत्वा तस्य रवं दत्त्वा दृष्टिं लक्ष्मणपूर्वजः । अवद्वारं परिज्ञाय स्वयमाहादरान्वितः ॥६॥ मुञ्चध्वमाशु मुञ्चध्वमेतमित्युज्झितश्च सः । पद्माभस्यान्तिकं गत्वा प्रहृष्टोऽवस्थितः पुरः॥६१॥ स्वस्त्याशीभिः समानन्ध पद्मनारायणावृषिः । परित्यक्तपरित्रासः स्थितो दत्ते सुखासने ॥६२॥ पद्मनाभस्ततोऽवोचत् सोऽवद्वारगतिवान् । क्षुल्लकोऽभ्यागतः कस्मादुक्तश्च स जगौ क्रमात् ॥६३॥ व्यसनार्णवमग्नाया जनन्या भवतोऽन्तिकात् । प्राप्तोऽस्मि वेदितुं वार्ता स्वत्पादकमलान्तिकम् ॥६॥ मान्यापराजिता देवी भव्या भगवती तव । माताऽश्रुधौतवदना दुःखमास्ते त्वया विना ॥६५।। सिंही किशोररूपेण रहितेव समाकुला । विकीर्णकेशसम्भारा कृतकुहिमलोठना ॥६६॥ विलापं कुरुते देव तादृशं येन तत्क्षणम् । मन्ये सञ्जायते व्यक्तं दृषदामपि मार्दवम् ।।६७।। तिष्ठति त्वयि सत्पुत्रे कथं तनयवत्सला । महागुणधरी स्तुत्या कृच्छ्रे सा परमं गता ॥६॥ अद्यश्वीनमिदं मन्ये तस्याः प्राणविवर्जनम् । यदि तां नेक्षसे शुष्क त्वद्वियोगोरुभानुना ॥६६॥ प्रसादं कुरुतां पश्य व्रजोत्तिष्ठ किमास्यते । एतस्मिन्ननु संसारे बन्धुर्माता प्रधानतः ॥७॥ वाःयमेव कैकय्या अपि दुःखेन वर्तते । तया हि कुहिमतलं कृतमस्रण पलवलम् ॥७॥ नाहारे शयने रात्रौ न दिवास्ति मनागपि । तस्याः स्वस्थतया योगो भवतोर्विप्रयोगतः ॥७२॥
अथानन्तर चोटीतक जिनके प्राण पहुँच गये थे, तथा जिन्हें अत्यधिक कँपकँपी छूट रही थी ऐसे नारद उत्तम गुहाका आकार धारण करनेवाले बिभीषणके घरके द्वारमें प्रविष्ट हुए ॥५८।। वहाँ दूरसे ही रामको देख, जिनका चित्त सहसा हर्षको प्राप्त हो रहा था ऐसे पसीनेसे लथपथ नारदने 'अहो अन्याय हो रहा है' इस प्रकार जोरसे आवाज लगाई ॥५६॥ रामने नारदका शब्द सुन उनकी ओर दृष्टि डालकर पहिचान लिया कि ये तो अवद्वार नामक नारद हैं। उसी समय उन्होंने आदरके साथ सेवकोंसे कहा कि इन्हें छोड़ो, शीघ्र छोड़ो। तदनन्तर सेवकोंने जिन्हें तत्काल छोड़ दिया था ऐसे नारद श्रीरामके पास जाकर हर्षित हो सामने खड़े हो गये ॥६०-६१॥ जिनका भय छूट गया था ऐसे ऋद्धि मङ्गलमय आशीर्वादोंसे राम-लक्ष्मणका अभिनन्दन कर दिये हुए सुखासनपर बैठ गये ॥६२।।
तदनन्तर श्रीरामने कहा कि आप तो अवद्वारगति नामक क्षुल्लक हैं। इस समय कहाँसे आ रहे हैं ? इस प्रकार श्रीरामके कहनेपर नारदने क्रम-क्रमसे कहा कि ॥६३।। मैं दुःखरूपी सागरमें निमग्न हुए आपकी माताके पाससे उनका समाचार जतानेके लिए आपके चरणकमलोंके
प आया हूँ ॥६४॥ इस समय आपका माता माननाय भगवती अपराजितादेवी आपके बिना बड़े कष्टमें हैं, वे रात-दिन आँसुओंसे मुख प्रक्षालित करतो रहती हैं ॥६५।। जिस प्रकार अपने बालकके बिना सिंही व्याकुल रहती है उसी प्रकार आपके बिना वे व्याकुल रहती हैं। उनके बाल बिखरे हुए हैं तथा वे पृथ्वीपर लोटती रहती हैं ॥६६॥ हे देव ! वे ऐसा विलाप करती हैं कि उस समय स्पष्ट ही पत्थर भी कोमल हो जाता है ।।६७॥ तुम सत्पुत्रके रहते हुए भी वह पुत्रवत्सला, महागुणधारिणी स्तुतिके योग्य उत्तम माता कष्ट क्यों उठा रही है ? ॥६॥ यदि अपने वियोगरूपी सूर्यसे सूखी हुई उस माताके आप शीघ्र ही दर्शन नहीं करते हैं तो मैं समझता है कि आजकल में ही उसके प्राण छूट जावेंगे ॥३।अतः प्रसन्न होओ, चलो, उठो. माताके दर्शन करो। क्यों बैठे हो ? यथार्थमें इस संसारमें माता ही सर्वश्रेष्ठ बन्धु है ॥७०।। जो बात आपकी माताकी है ठीक यही बात दुःखसे कैकेयी सुमित्राकी हो रही है। उसने अश्र बहा-बहाकर महलके फर्शको मानो छोटा-मोटा तालाब ही बना दिया है ॥७१।। आप दोनोंके
१. सद्गृहाकृतिम् ज०, ख० । २. मभ्रेण म० । Jain Education Interna 4-3
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