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एकाशीतितमं पर्व
ततोऽपराजितावादीद् यथावृत्तमशेषतः । सर्वप्राणिहिताचार्यस्थागतिं गणधारिणः ॥२८॥ वैदेहस्य समायोगं महाविद्याधरप्रभोः । दशस्यन्दनराजस्य प्रवज्यां पार्थिवैः समम् ॥२६॥ सीतालक्ष्मणयुक्तस्य पद्मनाभस्य निर्गमम् । वियोगं सीतया साकं सुगौवादिसमागमम् ॥३०॥ लचमणं समरे शक्त्या लङ्कानाथेन ताडितम् । द्रोणमेघस्य कन्याया नयनं त्वरयान्वितम् ॥३१॥ इत्युक्त्वाऽनुस्मृतात्यन्ततीवदुःखपरायणा । अश्रुधारां विमुञ्चन्ती सा पुनः पर्यदेवत ॥३२॥ हा हा पुत्र गतः क्वासि चिरमेहि प्रयच्छ मे । वचनं कुरु साधारं मग्नायाः शोकसागरे ॥३३॥ पुण्योज्झिता त्वदीयास्यमपश्यन्ती सुजातक । तीबदुःखानलालीढा हतं मन्ये स्वजीवितम् ॥३४॥ वन्दीगृहं समानता राजपुत्री सुखैधिता। बाला वनमृगीमुग्धा सीता दुःखेन तिष्ठति ॥३५॥ निघृणेन दशास्येन शक्त्या लचम गसुन्दरः । ताडितो जीवितं धत्ते नेति वार्ता न विद्यते ॥३६॥ हा सुदुर्लभको पुत्री हा सीते सति बालिके । प्राप्तासि जलधेमध्ये कथं दुःखमिदं परम् ॥३७॥ तं वृत्तान्तं ततो ज्ञात्वा वीणां क्षिप्त्वा महीतले । उद्विग्नो नारदस्तस्थौ हस्तावाधाय मस्तके ॥३८॥ क्षणनिष्कम्पदेहश्च विमृश्य बहुवीक्षितः । अब्रवीद् देवि नो सम्यम्वृत्तमेतद्विभाति मे ॥३६॥ त्रिखण्डाधिपतिश्चण्डो विद्याधरमहेश्वरः । वैदेहकपिनाथाभ्यां रावणः किं प्रकोपितः॥४०॥ तथापि कौशले शोक मा कृथाः परमं शुभे । अचिरादेष ते वार्तामानयामि न संशयः॥४१॥ कृत्यं विधातुमेतावद्देवि सामर्थ्यमस्ति मे । शक्तः स एव शेषस्य कार्यस्य तव नन्दनः ॥४२॥ प्रतिज्ञामेवमादाय नारदः खं समुद्गतः । वीणां कक्षान्तरे कृत्वा सखीमिव परां प्रियाम् ॥४३॥
तदनन्तर अपराजिता ( कौसल्या) ने जो वृत्तान्त जैसा हुआ था वह सब नारदसे कहा। उसने कहा कि सङ्घसहित सर्वभूतहित आचार्यका आगमन हुआ। महा विद्याधरोंके राजा भामण्डलका संयोग हुआ। राजा दशरथने अनेक राजाओंके साथ दीक्षा धारण की, सीता और लक्ष्मगके साथ राम वनको गये, वहाँ सीताके साथ उनका वियोग हुआ, सुग्रीवादिके साथ समागम हुआ, युद्ध में लङ्काके धनी-रावणने लक्ष्मणको शक्तिसे ताड़ित किया और द्रोणमेघकी कन्या विशल्या शीघ्रतासे वहाँ ले जाई गई ॥२८-३१॥ इतना कहते ही जिसे तीव्र दुःखका स्मरण हो आया था ऐसी कौसल्या अश्रुधारा छोड़ती हुई पुनः विलाप करने लगी ॥३२।। हाय हाय पुत्र ! तू कहाँ गया ? कहाँ है ? बहुत समय हो गया, शीघ्र ही आ, मेरे लिए वचन दे-मुझसे वार्तालाप कर और शोकसागरमें डूबी हुई मेरे लिए सान्त्वना दे ॥३३॥ हे सत्पुत्र ! मैं पुण्यहीना तुम्हारे
खको न देखती तथा तीव्र दुःखाग्निसे व्याप्त हुई अपने जीवनको निरर्थक मानती हूँ॥३४॥ सुखसे जिसका लालन-पालन हुआ तथा जो वनकी हरिणीके समान भोली है ऐसी राजपुत्री बेटी सीता शत्रुके बन्दीगृह में पड़ी दुःखसे समय काट रही होगी ॥३५॥ निदय रावणने लक्ष्मणको शक्तिसे घायल किया सो जीवित है या नहीं इसकी कोई खबर नहीं है ।।३६।। हाय मेरे अत्यन्त दुर्लभ पुत्रो ! और हाय मेरी पतिव्रते बेटी सीते ! तुम समुद्र के मध्य इस भयङ्कर दुःखको कैसे प्राप्त हो गई ॥३७||
तदनन्तर यह वृत्तान्त जानकर नारदने वीणा पृथ्वीपर फेंक दी और स्वयं उद्विग्न हो दोनों हाथ मस्तकसे लगा चुपचाप बैठ गये ॥३८॥ उनका शरीर क्षणमात्रमें निश्चल पड़ गया। जब विचारकर उनकी ओर अनेक बार देखा तब वे बोले कि हे देवि ! मुझे यह बात अच्छी नहीं जान पड़ती ॥३६॥ रावण तीन खण्डका स्वामी है, अत्यन्त क्रोधी तथा समस्त विद्याधरोंका स्वामी है सो उसे भामण्डल तथा सुप्रीवने क्यों कुपित कर दिया ? ॥४०॥ फिर भी हे कौसल्ये ! हे शुभे ! अत्यधिक शोक मत करो। यह मैं शीघ्र ही जाकर तुम्हारे लिए समाचार लाता हूँ इसमें कुल भी संशय नहीं है ॥४१।। हे देवि ! इतना ही कार्य करनेकी मेरी सामर्थ्य है । शेष कार्यके करने में तुम्हारा पुत्र ही समर्थ है ।।४२॥ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा परमप्यारी सखोके समान
वीणाको बगलमें दबाकर नारद आकाश में उड़ गये ॥४३॥ Jain Education International
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