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द्वयशीतितमं पर्व
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दशाङ्गभोगनगरमदस्तद् दृश्यते प्रिये । रूपवत्याः पिता वज्रश्रवा यच्छ्रावकः परः ॥१५॥ पुनरालोक्य धरणी पुनः पप्रच्छ जानकी । कान्तेयं नगरी कस्य खेचरेशस्य दृश्यते ॥१६॥ विमानसदृशैर्गे हैरियमत्यन्तमुत्कटा । न जातुचिन्मया दृष्टा त्रिविष्टपविडम्बिनी ॥१७॥ जानकीवचनं श्रुत्वा दिशश्चालोक्य मन्थरम् । क्षणं विभ्रान्तचेतस्को ज्ञात्वा पमः स्मिती जगौ॥ पूरयोध्या प्रिये सेयं नूनं खेचरशिल्पिभिः । अन्येव रचिता भाति जितलङ्का परद्यतिः ॥१६॥ ततोऽन्युग्रं विहायःस्थं विमानं सहसा परम् । द्वितीयादित्यसकाशं वीच्य क्षुब्धा नगर्यसौ ॥२०॥ आरुह्य च महानागं भरतः प्राप्तसम्भ्रमः । विभूत्या परया युक्तः शक्रवनिरगात् पुरः ॥२१॥ तावदैवत सर्वाशाः स्थगिता गगनायनः । नानायानतिमानस्थैर्वि चित्रर्द्धिसमन्वितैः ॥२२॥ दृष्ट्वा भरतमायान्तं भूमिस्थापितपुष्पकौ । पद्मलचमीधरौ यातौ समीपत्वं सुसम्मदौ ॥२३॥ समीपौ तावितौ दृष्ट्वा गजादुतीर्य कैकयः । पूजामर्धशतैश्चक्रे तयोः स्नेहादिपूरितैः ॥२४॥ विमानशिखरात्तौ तं निष्क्रम्य प्रीतिनिर्भरम् । केयूरभूषितभुजावग्रजावालिलिङ्गतुः ॥२५॥ दृष्टा पृष्टौ च कुशलं कृतशंसनसत्कथौ । भरतेन समेतौ तावारूढौ पुष्पकं पुनः ॥२६॥ प्रविशन्ति ततः सर्वे क्रमेण कृतसस्क्रियाम् । अयोध्यानगरी चित्रपताकाशबलीकृताम् ॥२७॥ साहसङ्गतैर्यानविमानर्यायभी रथैः । भनेकपघटाभिश्च मार्गोऽभूदु व्यवकाशकः ॥२८॥
का नगर है जहाँ लक्ष्मणने तुम्हारे समान कल्याणमाला नामकी अद्भुत कन्या प्राप्त की • थी॥१४॥ हे प्रिये ! यह दशाङ्गभोग नामका नगर दिखाई देता है जहाँ रूपवतीका पिता
वनकर्ण नामका उत्कृष्ट श्रावक रहता था ॥१५॥ तदनन्तर पृथिवीकी ओर देख कर सीताने पुनः पूछा कि हे कान्त ! यह नगरी किस विद्याधर राजाकी दिखाई देती है ।।१६।। यह नगरी विमानोंके समान उत्तम भवनोंसे अत्यन्त व्याप्त है तथा स्वर्गकी विडम्वना करनेवाली ऐसी नगरी मैंने कभी नहीं देखी ॥१७॥
सीताके वचन सुन तथा धीरे-धीरे दिशाओंकी ओर देख रामका चित्त स्वयं क्षणभरके लिए विभ्रममें पड़ गया। परन्तु बादमें सब समाचार जान कर मन्द हास्य करते हुए बोले कि हे प्रिये ! यह अयोध्या नगरी है । जान पड़ता है कि विद्याधर कारीगरोंने इसकी ऐसी रचना की है कि यह अन्य नगरीके समान जान पड़ने लगी है, इसने लंकाको जीत लिया है तथा उत्कृष्ट कान्तिसे युक्त है ॥१८-१६॥ तदनन्तर द्वितीय सूर्यके समान देदीप्यमान तथा आकाशके मध्यमें स्थित विमानको सहसा देख नगरी क्षोभको प्राप्त हो गई ॥२०॥ क्षोभको प्राप्त हुआ भरत महागजपर सवार हो महाविभूतियुक्त होता हुआ इन्द्र के समान नगरोसे बाहर निकला ।।२१॥ उसी समय उसने नाना यानों और विमानोंमें स्थित तथा विचित्र ऋद्धियोंसे युक्त विद्याधरोंसे समस्त दिशाओंको आच्छादित देखा ।।२२।। भरतको आता हुआ देख जिन्होंने पुष्पकविमानको पृथिबी पर खड़ा कर दिया था ऐसे राम और लक्ष्मण हर्षित हो समीपमें आये ॥२३।। तदनन्तर उन दोनोंको समोपमें आया देख भरतने हाथीसे उतर कर स्नेहादिसे पूरित सैकड़ों अघोंसे उनकी पूजा की ॥२४॥ तत्पश्चात् विमानके शिखरसे निकल कर बाजूवंदोंसे सुशोभित भुजाओंको धारण करनेवाले दोनों अग्रजोंने बड़े प्रेमसे भरतका आलिङ्गन किया ।।२।। एक दूसरेको देख कर तथा कुशल समाचार पूछ कर राम-लक्ष्मण पुनः भरतके साथ पुष्पकविमान पर आरूढ हुए ॥२६॥
तदनन्तर जिसकी सजावट की गई थी और जो नाना प्रकारको पताकाओंसे चित्रित थी ऐसी अयोध्या नगरीमें क्रमसे सबने प्रवेश किया ॥२७॥ धक्का धूमीके साथ चलनेवाले यानों,
१. पुरः म०। २. भरतः। ३. अश्वैः। ४. विगतावकाशः ।
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