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अशीतितम पर्व
दमदानदयायुक्तं शीलाव्यं गुरुसाक्षिकम् । नत्तमं तपोऽकृत्वा प्राप्यते पतिरीदृशः ॥११॥ नूनं नास्तमिते भानौ युक्तं साध्वी न दूषिता । विमानिता न दिग्वस्त्रा जातोऽयं पतिरीदशः ॥१५॥ योग्यो नारायणस्तासां योग्या नारायणस्य ताः । अन्योऽन्यं तेन ताभिश्च गृहीतं सुरतामृतम् ॥११६॥ न सा सम्पमसा' शोभा न सा लीला न सा कला। तस्य तासां च या नाऽऽसीत् तत्र श्रेणिक का कथा॥ कथं पद्मं कथं चन्द्रः कथं लचमीः कथं रतिः । भण्यतां सुन्दरत्वेन श्रत्वा तं किल तास्तथा ॥११॥ रामलचमणयोदृष्टा सम्पदं तां तथाविधाम् । विद्याधरजनौघानां विस्मयः परमोऽभवत् ॥११॥ चन्द्रवर्द्धनजातानामपि सङ्गमनी कथा । कर्तव्या सुमहानन्दा विवाहस्य च सूचनी ॥१२०॥ पद्मनाभस्य कन्यानां सर्वासां सङ्गमस्तथा। स विवाहोऽभवत्सर्वलोकानन्दकरः परः ॥२१॥ यथेप्सितमहाभोगसम्बन्धसुखभागिनौ । ताविन्द्राविव लङ्कायां रेमाते प्रमदान्वितौ ॥१२२॥ वैदेहीदेहविन्यस्तसमस्तेन्द्रियसम्पदः । वर्षाणि षडतीतानि लङ्कायां सीरलक्ष्मणः ॥१२३॥ सुखार्णवे निमग्नस्य चारुचेष्टाविधायिनः । काकुत्स्थस्य तदा सर्वमन्यस्मृतिपथारस्युतम् ॥१२॥ एवं तावदिदं वृत्तं कथान्तरमिदं पुनः । पापक्षयकरं भूप शृणु तत्परमानसः ।।१२५॥ असाविन्द्रजितो योगी भगवान् सर्वपापहा । विद्यालब्धिसुसम्पन्नो विजहार महीतलम् ॥२२६॥ वैराग्यानिलयुक्तेन सम्यक्रवारणिजन्मना । कर्मकक्ष महाघोरमदहद्धयानवहिना ॥१२७॥
परम पुण्यसे ऐसा पति प्राप्त किया ॥११३॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! दम, दान और दयासे युक्त, शीलसे सहित एवं गुरुको साक्षी पूर्वक लिये हुए उत्तम तपके किये बिना ऐसा पति नहीं प्राप्त हो सकता ।।११४।। सूर्यास्त होने पर जिसने भोजन नहीं किया है, जिसने कभी आर्यिकाको दोष नहीं लगाया है और दिगम्बर मुनि जिसके द्वारा अपमानित नहीं हुए, उसी स्त्रीका ऐसा पति होता है ॥११५॥ नारायण उन सबके योग्य थे और वे सब नारायणके योग्य थीं, इसीलिए नारायण और उन स्त्रियों ने परस्पर संभोग रूपी अमृत ग्रहण किया था ॥११६।। हे श्रेणिक ! न तो वह सम्पत्ति थी, न वह शोभा थी, न वह लीला थी और न वह कला थी जो लक्ष्मण और उनकी उन स्त्रियों में न पाई जाती फिर औरकी क्या कथा की जाय ? ॥११७।। सौन्दर्यकी अपेक्षा उनके मुखको देख कर कहा जाय कि कमल क्या है ? चन्द्रमा क्या है ? और उन स्त्रियोंको देख कर कहा जाय कि लक्ष्मी क्या है ? और रति क्या है ? ॥११८॥ राम-लक्ष्मणकी उस-उस प्रकारको संपदाको देख कर विद्याधरजनोंको बड़ा आश्चर्य हो रहा था ॥११॥ यहाँ चन्द्रवर्धनकी पुत्रियोंका समागम कराने तथा उनके विवाहको आनन्दमयी सूचना देने वाली कथाका निरूपण करना भी उचित जान पड़ता है ॥१२०॥ उस समय श्री राम तथा चन्द्रवर्धनकी समस्त कन्याओंका समागम कराने वाला वह विवाहोत्सव हुआ जो समस्त लोगोंको परम आनन्दका करने वाला था ॥१२१॥ इच्छानुसार महाभोगोंके सम्बन्धसे सुखको प्राप्त होने वाले वे राम लक्ष्मण, अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ लङ्कामें इन्द्र-प्रतीन्द्रके समान क्रीड़ा करते थे ॥१२२॥ जिनकी समस्त इन्द्रियोंकी सम्पदा सीताके शरीरके आधीन थी, ऐसे श्री रामको लङ्कामें रहते हुए छह वर्ष व्यतीत हो गये ॥१२३।। उस समय उत्तम चेष्टाओंके धारक रामचन्द्र, सुखके सागरमें ऐसे निमग्न हुए कि अन्य सब कुछ उनकी स्मृतिके मार्गसे च्युत हो गया ॥१२४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकारकी यह कथा तो रहने दो अब एकाग्र चित्त हो पापका क्षय करने वाली दूसरी कथा सुनो ।।१२५।।
___ अथानन्तर समस्त पापोंको नष्ट करने वाले भगवान् इन्द्र जित् मुनिराज, अनेक ऋद्धियोंकी प्राप्तिसे युक्त हो पृथिवीतल पर विहार करने लगे ॥१२६।। उन्होंने वैराग्य रूपी पवनसे युक्त तथा सम्यग्दर्शन रूपी वाससे उत्पन्न ध्यान रूपी अग्निके द्वारा कर्म रूपी भयंकर बनको भस्म कर दिया
१. संपन्नता म० । २. रम्यताम् म० । ३. रामस्य । ४. वैराग्यानलयुक्तेन ज० । Jain Education International
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