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एकोनाशीतितमं पर्व
आयान्तीमन्तिकं किञ्चिद्वैदेहीमापराजितः । विलोक्य निरुपाख्यानं भावं कमपि सङ्गतः ||४५|| विनयेन समासाद्य रमणं रतिसुन्दरी । वाष्पाकुलेक्षणा तस्थौ पुरः सङ्गमनाकुला ।।४६ ।। शचीव सङ्गता शक्रं रतिर्वा कुसुमायुधम् । निजधर्ममहिंसा नु सुभद्रा भरतेश्वरम् ॥४७॥ चिरस्थालोक्य तां पद्मः सङ्गमं नूतनं विदन् । मनोरथशतैर्लब्धां फलभारप्रणामिभिः ॥ ४८ ॥ हृदयेन वहन् कम्पं चिरासङ्गस्वभावजम् । महाद्युतिधरः कान्तः सम्भ्रान्ततरलेक्षणः ॥४६॥ केयूरदष्टमूलाभ्यां भुजाभ्यां क्षणमात्रतः । सञ्जातपीवरत्वाभ्यामा लिलिङ्ग रसाधिकम् ॥५०॥ तामालिङ्गन्विलीनो तु मग्नो नु सुखसागरे । हृदयं सम्प्रविष्टो नु पुनर्विरहतो भयात् ॥ ५१ ॥ प्रियकण्ठसमासक्तबाहुपाशा सुमानसा । कल्पपादप संसक्त हेमवल्लीव सा बभौ ॥५२॥ उद्भूतपुलकस्यास्य सङ्गमेनातिसौख्यतः । मिथुनस्योपमां प्राप्तं तदेव मिथुनं परम् ॥ ५३ ॥ दृष्ट्वा सुविहितं सीतारामदेवसमागमम् । तमम्बरगता देवा मुमुचुः कुसुमाञ्जलिम् ॥५४॥ गन्धोदकं च संगुञ्जद् भ्रान्तभ्रमरभीरुकम् । विमुच्य मेघपृष्ठस्थाः ससृजुर्भारितीरिति ॥५५॥ अहो निरुपमं धैर्यं सीतायाः साधुचेतसः । अहो गाम्भीर्यमक्षोभमहो शीलमनोज्ञता ॥५६॥ अहो नुं व्रतनैष्कम्प्यमहो सत्वं समुन्नतम् । मनसाऽपि यया नेष्टो रावणः शुद्धवृत्तया ॥५७॥ सम्भ्रान्तो लक्ष्मणस्तावद् वैदेह्याश्चरणद्वयम् । अभिवाद्य पुरस्तस्थौ विनयानतविग्रहः ॥५८॥
मानो कुटिलता से रहित - सीधी धनुषयष्टि हो ऐसी सीताको कुछ समीप आती देख श्रीराम किसी अनिर्वचनीयभावको प्राप्त हुए ।। ३८- ४५ ।। रतिके समान सुन्दरी सीता विनय पूर्वक पतिके समीप जाकर मिलने की इच्छासे आकुल होती हुई सामने खड़ी हो गई । उस समय उसके नेत्र हर्ष असे व्याप्त हो रहे थे || ४६ ॥ उस समय रामके समीप खड़ी सीता ऐसी जान पड़ती थी मानो इन्द्रके समीप इन्द्राणी हो आई हो, कामके समीप मानो रति ही आई हो, जिन धर्म के समीप मानो अहिंसा ही आई हो और भरत चक्रवर्ती के समीप मानो सुभद्रा ही आई हो ||४७|| जो फलके भारसे नम्रीभूत हो रहे थे ऐसे सैकड़ों मनोरथोंसे प्राप्त सीताको चिरकालबाद देखकर रामने ऐसा समझा मानो नवीन समागम ही प्राप्त हुआ हो ॥४८॥
अथानन्तर जो चिरकाल बाद होने वाले समागम के स्वभावसे उत्पन्न हुए कम्पनको हृदय में धारण कर रहे थे, जो महा दीप्तिके धारक थे, सुन्दर थे और जिनके चञ्चल नेत्र घूम रहे थे ऐसे श्रीरामने अपनी उन भुजाओंसे रसनिमग्न हो सीताका आलिङ्गन किया, जिनके कि मूल भाग बाजूबन्दोंसे अलंकृत थे तथा क्षणमात्रमें ही जो स्थूल हो गई थीं ॥४६-५० ॥ सीताका आलिङ्गन करते हुए राम क्या विलीन हो गये थे, या सुख रूपी सागर में निमग्न हो गये थे या पुनः विरहके भयसे मानो हृदयमें प्रविष्ट हो गये थे ॥५१॥ पतिके गले में जिसके भुजपाश पड़े थे, ऐसी प्रसन्न चित्तको धारक सीता उस समय कल्पवृक्षसे लिपटी सुवर्णलता के समान सुशोभित हो रही थी || ५२|| समागमके कारण बहुत भारी सुखसे जिसे रोमाञ्च उठ आये थे ऐसे इस दम्पतीकी उपमा उस समय उसी दम्पतीको प्राप्त थी || ५३|| सीता और श्रीरामदेवका सुखसमागम देख आकाश में स्थित देवोंने उनपर पुष्पाञ्जलियाँ छोड़ीं ॥ ५४ ॥ मेघोंके ऊपर स्थित देवोंने, गुञ्जार के साथ घूमते हुए भ्रमरोंको भय देनेवाला गन्धोदक वर्षा कर निम्नलिखित वचन कहे ॥ ५५ ॥ वे कहने लगे कि अहो ! पवित्र चित्तको धारक सीताका धैर्य अनुपम है । अहो ! इसका गाम्भीर्य क्षोभ रहित है, अहो ! इसका शीलव्रत कितना मनोज्ञ है ? अहो ! इसकी व्रत सम्बन्धी दृढ़ता कैसी अद्भुत है ? अहो ! इसका धैर्य कितना उन्नत है कि शुद्ध आचारको धारण करने वाली इसने रावणको मनसे भी नहीं चाहा ॥५६-५७।१ तदनन्तर जो हड़बड़ाये हुए थे और विनयसे जिनका शरीर नम्रीभूत हो रहा था ऐसे
१. रामः । २. अहोणुव्रतनैष्कम्प्य ख० ज० ।
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