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पद्मपुराणे
आतपत्रमिदं यस्य चन्द्रमण्डलसलिभम् । चन्द्रादित्यप्रतीकाशे धरो यश्चैष कुण्डले ॥३०॥ शरनिरसंकाशो हारो यस्य विराजते । सोऽयं मनोहरो देवि महाभूतिनरोत्तमः ॥३॥ परमं त्वद्वियोगेन सुवक्त्रे खेदमुद्वहन् । दिग्गजेन्द्र इवाऽऽयाति पद्मः पद्मनिरीक्षणे ॥३२॥ मुखारविन्दमालोक्य प्राणनाथस्य जानकी । चिरास्वप्नमिव प्राप्त मेने भूयो विषादिनी ॥३३॥ उत्तीय द्विरदाधीशात्पभनाभः ससम्भ्रमः । प्रमोदमुद्वहन्सीतां ससार विकचेक्षणः ॥३४॥ घनवृन्दादिवोत्तीर्य चन्द्रवल्लाङ्गलायुधः । रोहिण्या इव वैदेह्यास्तुष्टिं चक्रे समावजन् ॥३५।। प्रत्यासमत्वमायातं ज्ञात्वा नाथं ससम्भ्रमा'। मृगीवदाकुला सीता समुत्तस्थौ महातिः ।।३६॥ भूरेणुधूसरीभूतकेशी मलिनदेहिकाम् । कालनिगलितच्छायबन्धूकसरशाधराम् ॥३७॥ स्वभावेनैव तन्वङ्गी विरहेण विशेषतः । तथापि किञ्चिदुच्छासं दर्शनेन समागताम् ॥३८॥ भालिङ्गतीमिव स्निग्धैर्मयूखैः करजोद्गतैः । स्नपयन्तीमिवोद्वेलविलोचलनमरीचिभिः ॥३६।। लिम्पन्तीमिव लावण्यसम्पदा क्षणवृद्धया । वीजयन्तीमिवोच्छ्रासैहर्ष निर्भर निर्गतैः ॥४०॥ पृथुलारोहवच्छ्रोणी नेत्रविश्रामभूमिकाम् । पाणिपल्लवसौन्दर्यजितश्रीपाणिपङ्कजाम् ॥४॥ सौभाग्यरत्नसम्भूतिधारिणों धर्मरक्षिताम् । सम्पूर्णचन्द्रवदनां कलङ्कपरिवर्जिताम् ॥४२।। सौदामिनीसदच्छायामतिधीरत्वयोगिनीम् । मुखचन्द्रान्तरोद्भूतस्फीतनेत्रसरोरुहाम् ॥४३।। कलुषत्वविनिर्मुक्तां समुन्नतपयोधराम् । चापयष्टिमनङ्गस्य वक्रतापरिवर्जिताम् ॥४४॥
पसार कर इस प्रकार बोली कि जिनके ऊपर यह चन्द्रमण्डलके समान छत्र फिर रहा है, जो चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशमान कुण्डलोंको धारण कर रहे हैं तथा जिनके वक्षःस्थलमें शरऋतुके निर्भरके समान हार शोभा दे रहा है, हे कमल लोचने देवि ! वही ये महा वैभवके धारी नरोत्तम श्री राम तुम्हारे वियोगसे परम खेदको धारण करते हुए दिग्गजेन्द्रके समान आ रहे हैं ॥२६-३२॥ अत्यधिक विवादसे युक्त सीताने चिरकाल बाद प्राणनाथका मुखकमल देख ऐसा माना, मानो स्वप्न ही प्राप्त हुआ हो ॥३३।। जिनके नेत्र विकसित हो रहे थे ऐसे राम शीघ्र ही गजराजसे उतर कर हर्ष धारण करते हुए सीताके समीप चले ॥३४॥ जिसप्रकार मेघमण्डल से उतर कर आता हुआ चन्द्रमा रोहिणीको संतोष उत्पन्न करता है उसी प्रकार हाथीसे उतर कर आते हुए श्री रामने सीताको संतोष उत्पन्न किया ॥३५॥ तदनन्तर रामको निकट आया देख महा संतोषको धारण करने वाली सीता संभ्रमके साथ मृगीके समान आकुल होती हुई उठ कर खड़ी हो गई ॥३६॥
अथानन्तर जिसके केश पृथिवीकी धूलिसे धूसरित थे, जिसका शरीर मलिन था, जिसके ओठ मुरझाये हुए वन्धूकके फूलके समान निष्प्रभ थे, जो स्वभावसे ही दुबली थी और उस समय विरहके कारण जो और भी अधिक दुबली हो गई थी, यद्यपि दुबली थी तथापि पतिके दर्शनसे जो कुछ-कुछ उल्लासको धारण कर रही थी, जो नखोंसे उत्पन्न हुई सचिक्कण किरणोंसे मानो आलिङ्गन कर रही थी, खिले हुए नेत्रोंकी किरणोंसे मानो अभिषेक कर रही थी, क्षण-क्षणमें बढ़ती हुई लावण्य रूप सम्पत्तिके द्वारा मानो लिप्त कर रही थी और हर्षके भारसे निकले हुए उच्छासोंसे मानों पङ्खा ही चल रही थी, जिसके नितम्ब स्थूल थी, जो नेत्रोंके विश्राम करनेकी भूमि थी, जिसने कर-किसलयके सौन्दर्यसे लक्ष्मीके हस्त-कमलको जीत लिया था, जो सौभाग्यरूपी रत्नसंपदाको धारण कर रही थी, धर्मने ही जिसकी रक्षा की थी, जिसका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था, अत्यन्त धैर्यगुणसे सहित थी, जिसके मुखरूपी चन्द्रमाके भीतर विशाल नेत्ररूपी कमल उत्पन्न हुए थे, जो कलुषतासे रहित थी, जिसके स्तन अत्यन्त उन्नत थे, और जो कामदेवकी
१. उत्तीर्ण म० । २. ससंभ्रमात् म० । ३. निर्मद- म० । Jain Education International
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