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एकोनाशीतितम पर्व
असुरेन्द्रसमो येन रावणो रणमस्तके । साधितो लचमणः सोऽयं चक्रपाणिविराजते ॥१५॥ भिनाअनदलच्छाया कान्तिरस्य बलविषा' । भिन्ना प्रयागतीर्थस्य धत्ते शोभा विसारिणीम् ॥१६॥ चन्द्रोदरसुतः सोऽयं विराधितनरेश्वरः । नययोगेन येनेयं विपुला श्रीरवाप्यते ॥१७॥ असौ किष्किन्धराजोऽयं सुग्रीवः सत्वसङ्गतः । परमं रामदेवेन प्रेम यत्र नियोजितम् ॥१८॥ अयं स जानकीभ्राता प्रभामण्डलमण्डितः । इन्दुना खेचरेन्द्रण यो नीतः पदमीदृशम् ॥१६॥ वीरोऽङ्गदकुमारोऽयमसौ दुर्लडितः परम् । यस्तदा राक्षसेन्द्रस्य विघ्नं कत्तु समुद्यतः ॥२०॥ पश्य पश्येममुत्तुङ्ग स्यन्दनं सखि सुन्दरम् । वातेरित महाध्मातघनाभा यत्र दन्तिनः ॥२१॥ रणाङ्गणे विपक्षाणां यस्य वानरलचमगा। ध्वजयष्टिरलं भीष्मा श्रीशैलोऽयं स मारुतिः ॥२२॥ एवं वाग्भिर्विचित्राभिः पूज्यमाना महौजसः । राजमार्ग व्यगाहन्त पद्मनाभादयः सुखम् ॥२३॥ अथान्तिकस्थितामुक्त्वा पद्मश्चामरधारिणीम् । पप्रच्छ सादरं प्रेमरसादहृदयः परम् ॥२४॥ या सा मद्विरहे दुखं परिप्राप्ता सुदुःसहम् । भामण्डलस्वसा कासाविह देशेऽवतिष्ठते ॥२५।। ततोऽसौ रत्नबलयप्रभाजटिलबाहका। करशाखां प्रसार्योचे स्वामितोषणतत्परा ॥२६॥ अट्टहासान्विमुञ्चन्तमिमं निरवारिभिः । पुष्पप्रकीर्णनामानं राजन् पश्यति यं गिरिम् ॥२७॥ नन्दनप्रतिमेऽमुष्मिन्नुधाने जनकात्मजा । कीर्तिशीलपरीवारा रमगी तव तिष्ठति ॥२८॥ तस्या अपि समीपस्था सखी सुप्रियकारिणी । अङ्गुलीमूर्मिकारम्यां प्रसार्यवमभाषत ॥२६॥
कोई कह रही थी कि जिसने रणके अग्रभागमें असुरेन्द्रके समान रावणको जीता है ऐसे ये चक्र हाथमें लिये लक्ष्मण सुशोभित हो रहे हैं ॥१५॥ श्री रामकी धवल कान्तिसे मिली तथा मसले हुए अंजन कणकी समानता रखने वाली इनकी श्यामल कान्ति प्रयाग तीर्थकी विस्तृत शोभा धारण कर रही है ।।१६॥ कोई कह रही था कि यह चन्दोदरका पुत्र राजा विराधित है जिसने नीतिके संयोगसे यह विपुल लक्ष्मी प्राप्त की है ॥१७॥ कोई कह रही थी कि किष्किन्धका राजा बकशाली सुग्रीव है जिस पर श्री रामने अपना परम प्रेम स्थापित किया है ॥१८॥ कोई कह रही थी कि यह जानकीका भाई भामण्डल है जो चन्द्रगति विद्याधरके द्वारा ऐसे पदको प्राप्त हुआ है ॥१॥ कोई कह रही थी कि यह अत्यन्त लड़ाया हुआ वीर अंगद कुमार है जो उस समय रावणके विघ्न करनेके लिए उद्यत हुआ था ॥२०॥ कोई कह रही थी कि हे सखि ! देख-देख इस ऊँचे सुन्दर रथको देख, जिसमें वायुसे कम्पित गरजते मेघके समान हाथी जुते हैं ॥२१॥ कोई कह रही थी कि जिसकी वानर चिह्नित ध्वजा रणाङ्गणमें शत्रुओंके लिए अत्यन्त भय उपजाने वाली थी ऐसा यह पवनञ्जयका पुत्र श्री शैल-हनूमान है ॥२२।। इस तरह नाना प्रकारके वचनोंसे जिनकी पूजा हो रही थी तथा जो उत्तम प्रतापसे युक्त थे ऐसे राम आदिने सुखसे राजमार्गमें प्रवेश किया ॥२६॥
___ अथानन्तर प्रेम रूपी रससे जिनका हृदय आर्द्र हो रहा था ऐसे श्री रामने अपने समीप में स्थित चमर ढोलने वाली स्त्रीसे परम आदरके साथ पूछा कि जो हमारे विरहमें अत्यन्त दुःसह दुःखको प्रान हुई है ऐसी भामण्डलकी बहिन यहाँ किस स्थानमें विद्यमान है ? ॥२४-२५॥ तदनन्तर रत्नमयी चूड़ियोंकी प्रभासे जिसकी भुजाएँ व्याप्त थीं एवं जो स्वामीको संतुष्ट करनेमें तत्पर थी ऐसी चमर ग्राहिणी स्त्री अङ्गुली पसार कर बोली कि यह जो सामने नीझरनोंके जलसे अट्टहासको छोड़ते हुए पुष्प-प्रकीर्णक नामा पर्वत देख रहे हो इसीके नन्दन वनके समान उद्यान में कीर्ति और शील रूपी परिवारसे सहित आपकी प्रिया विद्यमान है ॥२६-२८॥
उधर सीताके समीपमें भी जो सुप्रिय कारिणी सखी थी वह अंगूठीसे सुशोभित अङ्गुली
१. बलविषः म० । २. लक्ष्मणम् म० । ३. मूर्मिकां रम्यां म० । ___ Jain Education International १२-३
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