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अष्टसप्ततितमं पर्व
परिदेवनमिति करुणं भजमाना वाष्पदुर्दिनं जनयन्ती । शशिकान्तयाऽऽर्ययाऽसौ प्रतिबोधं वाग्भिरुत्तमाभिरानीता ॥१२॥
शार्दूलविक्रीडितम् मूढे ! रोदिषि किं स्वनादिसमये संसारचक्रे त्वया
तिर्यङमानुषभूरियोनिनिवहे सम्भूतिमायातया । नानाबन्धुवियोगविह्वलधिया भूयः कृतं रोदनम्
किं दुःखं पुनरभ्युपैषि पदवी स्वास्थ्यं भजस्वाधुना ॥१३॥ संसारप्रकृतिप्रबोधनपरैर्वाक्यमनोहारिभि---
स्तस्याः प्राप्य विबोधमुत्तमगुणा संवेगमुग्रं श्रिता । स्यक्ताशेषगृहस्थवेषरचना मन्दोदरी संयता
जाताऽत्यन्तविशुद्धधर्मनिरता शुक्लैकवस्त्राऽऽवृता ||४|| लब्ध्वा बोधिमनुत्तमां शशिनखाऽप्यार्यामिमामाश्रिता
संशुद्धश्रमणा व्रतोरुविधवा जाता नितान्तोत्कटा । चत्वारिंशदथाष्टकं सुमनसां ज्ञेयं सहस्राणि हि
स्त्रीणां संयममाश्रितानि परमं तुल्यानि भासा रवेः ।।५।। इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे इन्द्रजितादिनिष्क्रमणाभिधाने
नामाष्टसप्ततिमं पर्व ॥८॥
सो मैं पापिनी इन सबके द्वारा छोड़ी गई हूँ, अब किसकी शरणमें जाऊँ ? ॥६१।। इस तरह जो करुण विलापको प्राप्त होती हुई आँसुओंकी अविरल वर्षा कर रही थी ऐसी मन्दोदरीको शशिकान्ता नामक आर्यिकाने उत्तम वचनोंके द्वारा प्रतिबोध प्राप्त कराया ॥२॥ आर्यिकाने समझाया कि अरी मूर्खे ! व्यर्थ ही क्यों रो रही है ? इस अनादि कालीन संसारचक्रमें भ्रमण करतो हुई तू तिर्यश्च और मनुष्योंकी नाना योनियोंमें उत्पन्न हुई है, वहाँ तूने नाना बन्धुजनोंके वियोगसे विह्वल बुद्धि हो अत्यधिक रुदन किया है। अब फिर क्यों दुःखको प्राप्त हो रही है आत्मपदमें लीन हो स्वस्थताको प्राप्त हो ॥६३||
तदनन्तर जो संसार दशाका निरूपण करनेमें तत्पर शशिकान्ता आर्यिकाके मनोहारी वचनोंसे प्रबोधको प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेगको प्राप्त हुई थी ऐसी उत्तम गुणोंकी धारक मन्दोदरी गृहस्थ सम्बन्धी समस्त वेष रचनाको छोड़ अत्यन्त विशुद्ध धर्म में लीन होती हुई एक सफेद वस्त्रसे आवृत आर्यिका हो गई ॥६४॥ रावणकी बहिन चन्द्रनखा भी इन्हीं आर्याके पास उत्तम रत्नत्रयको पाकर व्रतरूपी विशाल-सम्पदाको धारण करने वाली उत्तम साध्वी हुई। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिस दिन मन्दोदरी आदिने दीक्षा ली उस दिन उत्तम हृदयको धारण करने वाली एवं सूर्यकी दीप्तिके समान देदीप्यमान अड़तालीस हजार स्त्रियोंने संयम धारण किया ॥६५॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में इन्द्रजित् आदिकी
दीक्षाका वर्णन करने वाला अठहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥८॥
१. इति पद्मायने इन्द्रजितादि ज०।
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