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पद्मपुराणे
कुम्भश्रुतिमारीचावन्येऽत्र महाविशालसंवेगाः। अपगतकषायरागा: श्रामण्येऽवस्थिताः परमे ॥२॥ तृणमिव खेचरविभवं विहाय विधिना सुधर्मचरणस्थाः । बहुविधलब्धिसमेताः पर्याटुरिमे महीं मुनयः ॥३॥ मुनिसुव्रततीर्थकृतस्तीथे तपसा परेण सम्बद्धाः। ज्ञेयास्ते वरमुनयो वन्द्या भव्यासुवाहानाम् ॥॥ पतिपुत्रविरहदुःखज्वलनेन विदीपिता सती जाता। मन्दोदरी नितान्तं विह्वलहृदया महाशोका ||८५॥ मूर्धामेत्य विबोधं प्राप्य पुनः कुररकामिनी करुणम् । कुरुते स्म समाक्रन्दं पतिता दुःखाम्बुधावुने ॥६॥ हा पुत्रेन्द्रजितेदं व्यवसितमीहक़ कथं वया कृत्यम् । हा मेघवाहन कथं जननी नापेक्षिता दीना ।।८।। युक्तमिदं किं भवतोरनपेक्ष्य यदुग्रदुःखसन्तप्ताम् । मातरमेतद्विहितं किञ्चित्कार्य सुदुःखेन ।।८।। विरहितविद्याविभवो मुक्ततनू चितितले कथं परुषे । स्थातास्थो मे वत्सौ देवोपमभोगदुर्ललितौ ॥८६ हा तात कृतं किमिदं भवताऽपि विमुच्य भोगमुत्तमं रूपम् । एकपदे कथय कथं त्यक्तः स्नेहस्त्वया स्वपत्यासक्तः ॥१०॥ जनको भर्ता पुत्रः स्त्रीणामेतावदेव रवानिमित्तम् । मुक्ता सर्वैरेभिः कं शरणं संश्रयामि पुण्यविहीना ॥१॥
युक्त हुए इन्द्रजित् और मेघनादने कठिन दीक्षा धारण कर ली। इनके सिवाय जो कुम्भकर्ण तथा मारीच आदि अन्य विद्याधर थे वे भी अत्यधिक संवेगसे युक्त हो कषाय तथा रागभाव छोड़कर उत्तम मुनि पदमें स्थित हो गये ॥८१-८२॥ जिन्होंने विद्याधरोंके विभवको तृणके समान छोड़ दिया था, जो विधिपूर्वक उत्तम धर्मका आचरण करते थे, तथा जो नानाप्रकारकी ऋद्धियोंसे सहित थे, ऐसे ये मुनिराज पृथिवीमें सर्वत्र भ्रमण करने लगे ॥८३।। मुनिसुव्रत तीर्थकरके तीर्थमें वे परम तपसे युक्त तथा भव्य जीवोंके वन्दना करने योग्य उत्तम मुनि हुए हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४॥
जो पति और पुत्रोंके विरहजन्य दुःखाग्निसे जल रही थी ऐसी मन्दोदरी महाशोकसे युक्त हो अत्यन्त विह्वल हृदय हो गई ॥८॥ दुःखरूपी भयङ्कर समुद्रमें पड़ी मन्दोदरी पहले तो मूर्छित हो गई फिर सचेत हो कुररीके समान करुण विलाप करने लगी ।।८।। वह कहने लगी कि हाय पुत्र इन्द्रजित् ! तूने यह ऐसा कार्य क्यों किया ? हाय मेघवाहन ! तूने दुःखिनी माताको अपेक्षा क्यों नहीं की ? ।।८७॥ तीव्र दुःखसे सन्तप्त माताकी उपेक्षा कर अतिशय दुःखसे दुःखी हो तुम लोगोंने यह जो कुछ कार्य किया है सो क्या ऐसा करना तुम्हें उचित था ? ॥८८।। हे पुत्रो! तुम देवतुल्य भोगोंसे लड़ाये हुए हो। अब विद्याके विभवसे रहित हो,शरीरसे स्नेह छोड़ कठोर पृथ्वीतल पर कैसे पड़ोगे ? || तदनन्तर मन्दोदरी भयको लक्ष्य कर बोली कि हाय पिता! तुमने भी उत्तम भोग छोड़कर यह क्या किया ? कहो तुमने अपनी सन्तानका स्नेह एक साथ कैसे छोड़ दिया ? ॥६०॥ पिता, भर्ता और पुत्र इतने ही तो स्त्रियोंकी रक्षाके निमित्त हैं,
१. भव्यप्राणिनाम् इत्यर्थः, भव्याः सुवाहानाम् म० ज० ख० । २. त्यक्तस्नेहस म० ज० । Jain Education International
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