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अष्टसप्ततितमं पर्व
ततो हलधरोऽवोचत् कर्तव्यं किमतः परम् । मरणान्तानि वैराणि जायन्ते हि विपश्चिताम् ॥१॥ परलोके गतस्यातो लकेशस्योत्तमं वपुः । महानरस्य संस्कार प्रापयामः सुखैधितम् ॥२॥ तत्राभिनन्दिते वाक्ये विभीषणसमन्वितौ । बलनारायणी साकं शेषस्तां ककुभं श्रितौ ॥३॥ यत्र मन्दोदरी शोकविह्वला कुररीसमम् । योषित्सहस्रमध्यस्था विरौति करुणावहम् ॥४॥ अवतीर्य महानागात् सत्वरं बलकेशवी । मन्दोदरीमुपायातौ साकं खेचरपुङ्गवः ॥५॥ रष्ट्वा तौ सुतरां नार्यो रुरुदुर्मुक्तकण्ठकम् । विरुग्णरत्नवलया वसुधापांसुधूसराः ॥६॥ मन्दोदर्या समं सर्वमङ्गनानिवहं बलः । वाग्भिश्चित्राभिरानिन्ये समाश्वासं विचक्षणः ॥७॥ करागुरुगोशीर्षचन्दनादिभिरुत्तमैः । संस्कार्य रावणं याताः सर्वे पद्मसरो महत् ॥८॥ उपविश्य सरस्तीरे प नोक्तं सुचेतसा । कुम्भादयो विमुच्यन्तां सामन्तैः सहिता इति ॥६॥ खेचरेशैस्ततः कैश्चिदुक्तं ते क्रूरमानसाः । हन्यन्तां वैरिणो यद्वम्रियन्तां बन्धने स्वयम् ॥१०॥ बलदेवो जगी भूयः क्षात्रं नेदं विचेष्टितम् । प्रसिद्धा वा न विज्ञाता भवद्भिः किमियं स्थितिः ॥११॥ सुप्तबद्धनतत्रस्तदन्तदष्टादयो भटाः। न हन्तव्या इति क्षात्रो धर्मो जगति राजते ॥१२॥ एवमस्त्विति सन्नद्धास्तानानेतुं महाभटाः । नानाऽऽयुधधरा जग्मुः स्थास्यादेशपरायणाः ॥१३॥ इन्द्रजित्कुम्भकर्णश्च मारीचो धनवाहनः । तथा मयमहादैत्यप्रमुखाः खेचरोत्तमाः ॥१४॥ पूरिता निगडैः स्थूलरमी खणखणायितैः । प्रमादरहितैः शूरैरानीयन्ते समाहितैः ॥१५॥
तदनन्तर श्रीरामने कहा कि अब क्या करना चाहिए ? क्योंकि विद्वानोंके वैर तो मरण पर्यन्त ही होते हैं ॥१॥ अच्छा हो कि हम लोग परलोकको प्राप्त हुए महामानव लकेश्वरको सुखसे बढ़ाये हुए उत्तम शरीरका दाह संस्कार करावें ॥२॥ रामके उक्त वचनकी सबने प्रशंसा की । तब विभीषण सहित राम लक्ष्मण अन्य सब विद्याधर राजाओंके साथ उस दिशामें पहुंचे जहाँ हजारों स्त्रियोंके बीच बैठी मन्दोदरी शोकसे विह्वल हो कुररीके समान करुण विलाप कर रही थी॥३-४|| राम और लक्ष्मण महागजसे उतर कर प्रमुख विद्याधरोंके साथ मन्दोदरीके पास गये ॥५॥ जिन्होंने रत्नोंकी चूड़ियाँ तोड़कर फेंक दी थीं तथा जो पृथिवीकी धूलिसे धूसर शरीर हो रही थीं ऐसी सब स्त्रियाँ राम लक्ष्मणको देख गला फाड़ फाड़कर अत्यधिक रोने लगीं ॥३॥ बुद्धिमान् रामने मन्दोदरीके साथ साथ समस्त स्त्रियोंके समूहको नाना प्रकारके वचनोंसे सान्त्वना प्राप्त कराई ॥७॥ तदनन्तर कपूर, अगुरु, गोशीर्ष और चन्दन आदि उत्तम पदार्थोंसे रावणका संस्कार कर सब पद्म नामक महासरोवर पर गये ॥८॥ उत्तम चित्तके धारक रामने सरोवरके तीरपर बैठकर कहा कि सब सामन्तोंके साथ कुम्भकर्णादि छोड़ दिये जावें ॥६॥ यह सुन कुछ विद्याधर राजोआंने कहा कि वे बड़े क्रूर हृदय हैं अतः उन्हें शत्रुओंके समान मारा जाय अथवा वे स्वयं ही बन्धनमें पड़े पड़े मर जावें ॥१०॥ तब रामने कहा कि यह क्षत्रियोंकी चेष्टा नहीं। क्या आप लोग क्षत्रियोंकी इस प्रसिद्ध नीतिको नहीं जानते कि सोते हुए, बन्धनमें बँधे हुए, नम्रीभृत, भयभीत तथा दाँतोंमें तृण दबाये हुए आदि योधा मारने योग्य नहीं हैं। यह क्षत्रियोंका धर्म जगत्में सर्वत्र सुशोभित है ।।११-१२।। तब 'एवमस्तु' कहकर स्वामीकी आज्ञा पालन करनेमें तत्सर, नाना प्रकारके शस्त्रोंके धारक महायोद्धा कवचादिसे युक्त हो उन्हें लानेके लिये गये ॥१३॥
तदनन्तर इन्द्रजित् , कुम्भकर्ण, मारीच, मेघवाहन तथा मय महादैत्यको आदि लेकर
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