________________
अष्टसप्ततितम पर्व
षट्पञ्चाशत्सहस्रेस्तु खेचरैर्मुनिभिः परैः । रेजे तत्र समासीनो ग्रहैविधुरिवाऽ वृतः ॥६०॥ शुक्लध्यानप्रवृत्तस्य सद्विविक्ते शिलातले । तस्यामेव समुत्पनं शर्वयां तस्य केवलम् ॥६॥ तस्यातिशयसम्बन्धं कीय॑मानं मनोहरम् । शृणु श्रेणिक ! पापस्य नोदनं परमाद्भुतम् ॥१२॥
___ अथ मुनिवृषभं तथाऽनन्तसत्वं मृगेन्द्रासने सन्निविष्टं भुवोऽधोनिवासाः मरुनागविद्यसुर्पादयो विंशतेरर्धभेदाः । तथा षोडशा प्रकाराः स्मृता व्यन्तराः किन्नराद्याः सहस्रांशुचन्द्रग्रहाद्याश्च पञ्चप्रकारान्विता ज्योतिराख्या, द्विरष्टप्रकाराश्व कल्पालयाः ख्यातसौधर्मनामादयो धातकीखण्डवास्ये समुदभूतकालोस्सवे स्फीतपूजां सुमेरोः शिरस्युत्तमे देवदेवं जिनेन्द्र शुभै रत्नधाविन्द्रकुम्भैः सुभक्स्याभिषिच्य प्रणुस्य, प्रगीर्भिः पुनातुरके सुखं स्थापयित्वा प्रभुं बालक बालकर्मप्रमुक्तं प्रवन्ध प्रहृष्टा विधायोचितं वस्तुकृत्यं परावर्तमानाः, समालोक्य तस्याभिजग्मुः समीपं, प्रभावानुकृष्टाः प्रवरविमानानि केचित्समानानि रनोरुदामानि दीक्षांशुबिम्बप्रकाशानि देवाः समारूढवन्तोऽत्र केचिच्च शङ्खप्रतीकाशसद्राजहंसाश्रिताः केचिदुद्दामदानप्रसेकातिसद्गन्धसम्बन्धसम्भ्रान्तगुञ्जषडवि-प्रहृष्टोरुचक्रातिनीलप्रभाजालकोच्छासिगण्डस्थलानेकपाधीशपृष्ठाधिरूढास्तथा बालचन्द्राभदंष्ट्राकरालाननव्याघ्रसिंहादिवाहाधिरूढा मुनेरन्तिकं प्रस्थिताश्चारुचित्ताः पटुपटहमृदङ्गगम्भीर
कारण सुवर्णकलशके समान जान पड़ते थे, ऐसे वे मुनि लङ्कामें आकर कुसुमायुधनामक उद्यानमें ठहरे ॥५६।। वे छप्पन हजार आकाशगामी उत्तम मुनियों के साथ उस उद्यान में बैठे हए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रोंसे घिरा हुआ चन्द्रमा ही हो ॥६०॥ निर्मल शिलातलपर शुक्लध्यानमें आरूढ हुए उन मुनिराजको उसी रात्रिमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥६१।। हे श्रेणिक ! मैं पापको दूर करनेवाला परमआश्चर्यसे युक्त उनके मनोहर अतिशयोंका वर्णन करता हूँ सो सुन ॥६॥
अथानन्तर केवलज्ञान उत्पन्न होते ही वे मुनिराज वीर्यान्तराय कर्मका क्षय हो जानेसे अनन्तबलके स्वामी हो गये तथा देवनिर्मित सिंहासन पर आरूढ हुए। पृथ्वोके नीचे पाताललोकमें निवास करनेवाले वायुकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार तथा सुपर्णकुमार आदि दश प्रकारके भवनवासी, किन्नरोंको आदि लेकर आठ प्रकारके व्यन्तर, सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह आदि पाँच प्रकारके ज्यौतिषी और सौधर्म आदि सोलह प्रकारके कल्पवासी इस तरह चारों निकायके देव घातकी खण्डद्वीपमें उत्पन्न हुए किसी तीर्थङ्कर के जन्मकल्याणक सम्बन्धी उत्सवमें गये हुए थे, वहाँ विशाल पूजा तथा सुमेरू पर्वतके उत्तम शिखर पर विराजमान देवाधिदेव जिनेन्द्र बालकका शुभ रत्नमयी एवं सुवर्णमयी कलशों द्वारा अभिषेक कर उन्होंने उत्तम शब्दोंसे उनकी स्तुति की। तदनन्तर वहाँसे लौटकर जिन बालकको माताकी गोद में सखसे विराजमान किया। जो बालक अवस्था होने पर भी बालकों जैसी चपलतासे रहित थे ऐसे जिन बालकको नमस्कार कर उन देवोंने हर्षित हो, मेरुसे लौटनेके बाद तीर्थङ्करके घर पर होनेवाले ताण्डवनृत्य आदि कार्य यथायोग्य रीतिसे किये । तदनन्तर वहाँ से लौटकर लङ्कामें अनन्तवीर्य मुनिका केवलज्ञान महोत्सव देख उनके समीप आये । मुनिराजके प्रभावसे खिंचे हुए उन देवोंमें कितने ही देव रत्नांकी बड़ीबड़ी मालाओंसे युक्त, सूर्यबिम्बके समान प्रकाशमान एवं योग्य प्रमाणसे सहित उत्तम विमानों में आरूढ थे, कितने ही शङ्खके समान सफेद उत्तमराज हँसोंपर सवार थे, कितने हो उन हाथियोंकी पीठपर आरूढ थे, जिनके कि गण्डस्थल अत्यधिक मद सम्बन्धी श्रेष्ठ सगन्धिके सम्बन्धसे गंजते हुए भ्रमरसमूहकी श्यामकांतिके कारण कुछ बढ़े हुए-से दिखायी देते थे और कितने ही बालचंद्रमा. के समान दाढ़ोंसे भयङ्कर मुखवाले व्याघ्र-सिंह आदि वाहनों पर आरूढ़ थे। वे सब देव प्रसन्न चित्तके धारक हो उन मुनिराजके समीप आ रहे थे। उस समय जोर-जोरसे बजनेवाले पटह,
१. वृत्तगन्धिगद्ययुक्तोऽयं भागः । अत्र सर्वत्र भागे भुजङ्गप्रयातच्छन्दसः अाभासो दृश्यते । ११-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org