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अष्टसप्ततितमं पर्व
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परिसान्त्व्य ततश्चक्री वचनैहृदयङ्गमैः । जगाद पूर्ववद्यूयं भोगैस्तिष्ठत सङ्गताः ॥३०॥ गदितं तैरलं भोगैरस्माकं विषदारुणैः । महामोहाव है मैः सुमहादुःखदायिभिः ॥३१॥ उपायाः सन्ति ते नैव यैर्न ते कृतसान्त्वनाः । तथापि भोगसम्बन्धं प्रतीयुर्न मनस्विनः ॥३२॥ नारायणे तथालग्ने स्वयं हलधरेऽपि च । दृष्टिोंगे पराचीना तेषामासीदवाविव ॥३३॥ भिन्नाअनदलच्छाये तस्मिन् सुसरसो जले । अबन्धनैरिभैः साकं स्नाताः सर्वे सगन्धिनि ॥३४॥ राजीवसरसस्तस्मादुत्तीर्यानुक्रमेण च । यथा स्वं निलयं जग्मुः कपयो राक्षसास्तथा ॥३५॥ सरसोऽस्य तटे रम्ये खेचरा बद्धमण्डलाः । केचिच्छरकथां चक्रविस्मयव्याप्तमानसाः ॥३६॥ ददुः केचिदुपालम्भं दैवस्य क्रूरकर्मणः । मुमुचुः केचिदनाणि सन्ततानि स्वनोज्झितम् ॥३७॥ आपूर्यमाणचेतस्का गुणैः स्मृतिपथं गौः । रावणीयैर्जनाः केचिदुरुदुर्मुक्तकण्ठकम् ॥३८॥ चित्रतां कर्मणां केचिदवोचन्नतिसङ्कटाम् । अन्ये संसारकान्तारं निनिन्दुरतिदुस्तरम् ॥३६॥ केचिद्भोगेषु विद्वेषं परमं समुपागताः । राजलचमी चलां केचिदमन्यन्त निरर्थकाम् ॥४०॥ गतिरेषेव वीरागामिति केचिद् बभाषिरे । अकार्यगहणं केचिच्चक्ररुत्तमबुद्धयः ॥४॥ रावणस्य कथां केचिदभजन गवंशालिनीम् । केचित्पद्मगुणानूचुः शक्ति केचिच्च लाचमणीम् ॥४२॥ केचिद् बलममृष्यन्तो मन्दकम्पितमस्तकाः । सुकृतस्य फलं वीराः शशंसुः स्वच्छचेतसः ॥४३॥ गृहे गृहे तदा सर्वाः क्रियाः प्राप्ताः परिक्षयम् । प्रावर्तन्त कथा एवं शिशनामपि केवलाः ॥४४॥
तदनन्तर लक्ष्मणने मनोहर वचनों द्वारा सान्त्वना देकर कहा कि आप सब पहले की तरह भोगोपभोग करते हुए आनन्दसे रहिये ॥३०।। यह सुन उन्होंने कहा कि विषके समान दारुण, महामोहको उत्पन्न करनेवाले, भयङ्कर तथा महादुःख देनेवाले भोगोंकी हमें आवश्यकता नहीं है ॥३१।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! उस समय वे उपाय शेष नहीं रह गये थे जिनसे उन्हें सान्त्वना न दी गई हो परन्तु फिर भी उन मनस्वी मनुष्योंने भोगोंका सम्बन्ध स्वीकृत नहीं किया ॥३२।। यद्यपि नाराय ग और बलभद्र स्वयं उस तरह उनके पीछे लगे हुए थे अर्थात् उन्हें भोग स्वीकृत करानेके लिए बार-बार समझा रहे थे तथापि उनकी दृष्टि भोगोंसे उस तरह विमुख ही रही जिस तरह कि सूर्यसे लगी दृष्टि अन्धकारसे विमुख रहती है ॥३३।। मसले हुए अञ्जनके कणोंके समान कान्तिवाले उस सरोवरके सुगन्धित जलमें बन्धनमुक्त कुम्भकर्णादिके साथ सबने स्नान किया ॥३४॥ तदनन्तर उस पद्मसरोवरसे निकलकर सब वानर और राक्षस, यथायोग्य अपने अपने स्थान पर चले गये ।।३५।। कितने ही विद्याधर इस सरोवरके मनोहर तटपर मण्डल बाँधकर बैठ गये और आश्चर्यसे चकितचित्त होते हुए शूरवीरोंकी कथा करने लगे ॥३६॥ कितने ही विद्याधर क्रूरकर्मा दैवके लिए उपालम्भ देने लगे और कितने ही शब्दरहित-चुपचाप अत्यधिक अश्रु छोड़ने लगे ॥३७॥ स्मृतिमें आये हुए रावणके गुणोंसे जिनके चित्त भर रहे थे ऐसे कितने ही लोग गला फाड़-फाड़कर रो रहे थे ॥३८।। कितने ही लोग कर्मोंकी अत्यन्त संकटपूर्ण विचित्रताका निरूपण कर रहे थे और कितने ही अत्यन्त दुस्तर संसाररूपी अटवीकी निन्दा कर रहे थे ॥३६॥ कितने ही लोग भोगोंमें परम विद्वेषको प्राप्त होते हुए राज्यलक्ष्मीको चञ्चल एवं निरर्थक मान रहे थे ॥४०॥ कोई यह कह रहे थे कि वीरोंकी ऐसी ही गति होती है और कोई उत्तम बुद्धिके धारक अकार्य-खोटे कार्यकी निन्दा कर रहे थे ।।४।। कोई रावणको गर्वभरी कथा कर रहे थे, कोई रामके गुण गा रहे थे और कोई लक्ष्मणकी शक्तिको चर्चा कर रहे थे।॥४२॥ जिनका मस्तक धीरे-धीरे हिल रहा था तथा जिनका चित्त अत्यन्त वच्छ था ऐसे कितने ही वीर, रामकी प्रशंसा न कर पुण्यके फलकी प्रशंसा कर रहे थे ॥४३॥ उस समय घर-घरमें सब कार्य समाप्त हो गये थे केवल बालकोंमें कथाएँ चल रहीं थीं ॥४४॥ उस १. -दश्रूणि । For Private & Personal Use Only
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