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अष्टसप्ततितम पर्व
प्रपद्यन्त्यधस्तान्महीरत्नप्रभाशर्कराबालुकापधुमप्रभाध्वान्तभातिप्रकृष्टान्धकाराभिधास्ताश्च नित्यं महाध्वान्तयुक्ताः सुदुर्गन्धवीभत्सदुःप्रेक्ष्यदुःस्पर्शरूपा महादारुणास्तप्तलोहोपमचमातलाः क्रन्दमाकोशनत्रासनैराकुला यत्र ते नारकाः पापबन्धेन दुष्कर्मणा सर्वकालं महातीबदुःखामनेकार्णवोपम्यबन्धस्थिति प्राप्नुवन्तीदमेवं विदित्वा बुधाः पापबन्धादतिद्विष्टचित्ता रमध्वं सुधर्मे व्रतनियमविनाकृताश्च स्वभावार्जवायेगुणरशिताः केचिदायान्ति मानुष्यमन्ये तपोभिर्विचित्रैः सुराणां निवासं ततश्च्युताः प्राप्य भूयो मनुष्यत्वमुत्सृष्टधर्माभिलाषा जना ये भान्त्येतके श्रेयसा विप्रमुक्ताः पुनर्जन्ममृत्युमोदारकान्तारमध्ये भ्रमन्स्युप्रदुःखाहताशाः । अथातोऽपरे भव्यधर्मस्थिताः प्राणिनो देवदेवस्य वाग्भिभृशं भाविताः सिद्धिमार्गानुसारेण शीलेन सत्येन शौचेन सम्यकतपोदर्शनज्ञानचारित्रयोगेन चात्युत्कटाः येन ये यावदष्टप्रकारस्य कुर्वन्ति निर्णाशनं कर्मणस्तावदुत्तमभूत्यन्विताः स्वर्भवानां भवन्त्युत्तमाः स्वामिनस्तत्र चाम्भोधितुल्यान् प्रभूताननेकप्रभेदान् समासाद्य सौख्यं ततः प्रत्युता धर्मशेषस्य लब्ध्वा फलं स्फीतभोगान् श्रियं प्राप्य बोधि परित्यज्य राज्यादिकं जैनलिज समादाय कृत्वा तपोऽत्यन्तधोरं समुत्पाद्य सद्धयानिनः केवलज्ञानमायुःपये कृत्स्नकर्मप्रमुक्ता भवन्तखिलोकाममारुह्य सिद्धा अनन्तं शिवं सौख्यमास्मस्वभावं परिप्राप्नुवन्त्युत्तमम् ।
उपजातिवृत्तम् अथेन्द्रजिद्वारिदवाहनाभ्यां पृष्टः स्वपूर्व जननं मुनीन्द्रः ।
उवाच कौशाम्ब्यभिधानपुयां भ्रातृद्वयं निःस्वकुलीनमासीत् ॥१३॥ वृद्धिको प्राप्त हुए इन पाँच पापोंके साथ संसर्गको प्राप्त होते हैं। अन्तमें खोटे कर्मोसे प्रेरित हुए मानव, मृत्युको प्राप्त हो नीचे पाताललोकमें जन्म लेते हैं। नीचेकी पृथिवीके नाम इस प्रकार हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा और महातमःप्रभा। ये पृथिवियाँ निरन्तर महा अन्धकारसे युक्त, अत्यन्त दुर्गन्धित, घृणित दुर्दृश्य एवं दुःखदायी स्पर्श रूप हैं। महादारुण हैं, वहाँ की पृथिवी तपे हुए लोहे के समान हैं। सबकी सब तीव्र आक्रन्दन, आक्रोशन और भयसे आकुल हैं। जिन पृथिवियोंमें नारकी जीव पापसे बँधे हुए दुष्कर्मके कारण सदा महा तीव्र दुःख अनेक सागरोंकी स्थिति पर्यन्त प्राप्त होते रहते हैं। ऐसा जान कर हे विद्वज्जन हो पापबन्धसे चित्तको द्वेष युक्त कर उत्तम धर्ममें रमण करो। जो प्राणी व्रत-नियम आदिसे तो रहित हैं परन्तु स्वाभाविक सरलता आदि गुणोंसे सहित हैं ऐसे कितने ही प्राणी मनुष्य गतिको प्राप्त होते हैं और कितने ही नाना प्रकारके तपश्चरण कर देवगतिको प्राप्त होते हैं। वहाँसे च्युत हो पुनः मनुष्य पर्याय पाकर जो धर्म की अभिलाषा छोड़ देते हैं वे कल्याणसे रहित हो पुनः उग्र दुःखसे दुःखी होते हुए जन्म-मरणरूपी वृक्षोंसे युक्त विशाल संसार वनमें भ्रमण करते रहते हैं।
अथानन्तर जो भव्य प्राणी देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंसे अत्यन्त प्रभावित हो मोक्षमार्गके अनुरूप शील, सत्य, शौच, सम्यक् तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्रके युक्त होते हुए अष्ट कर्मो के नाशका प्रयत्न करते हैं, वे उत्कृष्ट वैभवसे युक्त हो देवोंके उत्तम स्वामी होते हैं और वहाँ अनेक सागर पर्यन्त नाना प्रकारका सुख प्राप्त करते रहते हैं। तदनन्तर वहाँसे च्युत हो अवशिष्ट धर्मके फल स्वरूप बहुत भारी भोग और लक्ष्मीको प्राप्त होते हैं और अन्तमें रत्नत्रयको प्राप्त कर राज्यादि वैभवका त्याग कर जैनलिङ्ग-निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करते हैं तथा अत्यन्त तीव्र तपश्चरण कर शुक्लध्यानके धारी हो केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और आयुःका क्षय होनेपर समस्त कर्मोसे रहित होते हुए तीन लोकके अग्र भाग पर आरूढ़ हो सिद्ध बनते हैं एवं अन्तरहित आत्मस्व. भावमय आह्लाद-रूप अनन्त सुख प्राप्त करते हैं।
___ अथानन्तर इन्द्रजित् और मेघवाहनने अनन्तवीय मुनिराजसे अपने पूर्वभव पूछ । सो इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि कौशाम्बी नगरीमें दरिद्रकुलमें उत्पन्न हुए दो भाई रहते थे।
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