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पद्मपुराणे
विलोक्यानीयमानांस्तान्दिङ्मतङ्गजसमिभान् । जजल्पुः कपयः स्वैरं संहतिस्थाः परस्परम् ॥१६॥ प्रज्वलन्ती चितां वीचय रावणीयां रुषं यदि । प्रयातीन्द्रजितो जातु कुम्भकर्णनृपोऽपि वा ॥१७॥ अनयोरेककस्यापि ततो विकृतिमीयुषः । कः समर्थः पुरः स्थातुं कपिध्वजबले नृपः ॥१८॥ यो यत्रावस्थितस्तस्मात् स्थानादुद्याति नैव सः । अनयोर्हि बलं दृष्टमेतैः सङ्ग्राममूर्द्धनि ॥१६॥ भामण्डलेन चात्मीया गदिता भटपुङ्गवाः । यथा नायापि विश्रम्मो विधातव्यो विभीषणे ॥२०॥ कदाचित् स्वजनानेतान् प्राप्य निर्धूतबन्धनान् । भ्रातृदुःखानुतप्तस्य जायतेऽस्य विकारिता ॥२१॥ इत्युद्भूतसमाशके वैदेहादिभिरावृताः । नीयन्ते कुम्भकर्णाधा बलनारायणान्तिकम् ॥२२॥ रागद्वेषविनिर्मुक्ता मनसा मुनितां गताः । धरणीं सौम्यया दृष्ट्या वीक्षमाणाः शुभाननाः ॥२३॥ संसारे सारगन्धोऽपि न कश्चिदिह विद्यते । धर्म एको महाबन्धुः सारः सर्वशरीरिणाम् ॥२४॥ विमोक्षं यदि नामास्मात् प्राप्स्यामो बन्धनाद वयम् । पारणां पाणिपात्रेण करिष्यामो निरम्बराः ॥२५॥ प्रतिज्ञामेवमारूढा रामस्यान्तिकमाश्रिताः । विभीषणं समाजग्मुः कुम्भकर्णादयो नृपाः ॥२६॥ वृत्ते यथायथं तत्र दुःखसम्भाषणेऽगदन् । प्रशान्ताः कुम्भकर्णाद्या बलनारायणाविति ॥२७॥ अहो वः परमं धैर्य गाम्भीयं चेष्टितं बलम् । सुरैरप्यजयो नीतो मृत्युं यद्राक्षसाधिपः ॥२८॥ परं कृतापकारोऽपि मानी नियूंढभाषितः । अत्युन्नतगुणः शत्रुः श्लाघनीयो विपश्चिताम् ॥२६॥
अनेक उत्तम विद्याधर जो रामके कटकमें कैद थे तथा खन खन करनेवालो बड़ी मोटी बेड़ियोंसे जो सहित थे वे प्रमाद रहित सावधान चित्तके धारक शूरवीरों द्वारा लाये गये ॥१४-१५।। दिग्गजोंके समान उन सबको लाये जाते देख, समहके बीच बैठे हए विद्याधर इच्छानुसार परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे कि यदि कहीं रावणकी जलती चिताको देखकर इन्द्रजित् अथवा कुम्भकर्ण क्रोधको प्राप्त होता है अथवा इन दोमें से एक भी बिगड़ उठता है तो उसके सामने खड़ा होनेके लिए वानरोंकी सेनामें कौन राजा समर्थ हैं ? ।।१६-१८।। उस समय जो जहाँ बैठा था उस स्थानसे नहीं उठा सो ठीक ही है क्योंकि ये सब रणके अग्रभागमें उनका बल देख चुके थे ॥१६॥ भामण्डलने अपने प्रधान योद्धाओंसे कह दिया कि विभीषणका अब भी विश्वास नहीं करना चाहिये ॥२०॥ क्योंकि कदाचित् बन्धनसे छूटे हुए इन आत्मीय जनोंको पाकर भाईके दुःखसे संतप्त रहनेवाले इसके बिकार उत्पन्न हो सकता है ॥२१॥ इस प्रकार जिन्हें नाना प्रकारकी शङ्काएँ उत्पन्न हो रही थीं ऐसे भामण्डल आदिके द्वारा घिरे हुए कुम्भकर्णादि राम लक्ष्मणके समीप.लाये गये ॥२२॥
वे कुम्भकर्णादि सभी पुरुष राग-द्वेषसे रहित हो हृदयसे मुनिपनाको प्राप्त हो चुके थे, सौम्य दृष्टिसे पृथिवीको देखते हुए आ रहे थे, सबके मुख अत्यन्त शुभ-शान्त थे ।।२३।। वे अपने मनमें यह प्रतिज्ञा कर चुके थे कि इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है एक धर्म ही सार है जो सब प्राणियोंका महाबन्धु है । यदि हम इस वन्धनसे छुटकारा प्राप्त करेंगे तो निर्ग्रन्थ साधु हो पाणि-मात्र से ही आहार ग्रहण करेंगे। इस प्रकारकी प्रतिज्ञाको प्राप्त हुए वे सब रामके समीप आये। कुम्भकर्ण आदि राजा विभीषणके भी सम्मुख गये ॥२४-२६।। तदनन्तर जब दुःखके सयमका वार्तालाप धीरे-धीरे समाप्त हो गया तब परम शान्तिको धारण करनेवाले कुम्भकर्णादि ने राम-लक्ष्मणसे इस प्रकार कहा कि अहो! आप लोगोंका धैर्य, गाम्भीर्य, चेष्टा तथा बल आदि सभी उत्कृष्ट है क्योंकि जो देवों के द्वारा भी अजेय था ऐसे रावणको आपने मृत्यु प्राप्त करा दी ॥२७-२८॥ अत्यन्त अपकारी, मानी और कटुभाषी होनेपर भी यदि शत्रुमें उत्कृष्ट गुण हैं तो बह विद्वानोंका प्रशंसनीय ही होता है ॥२६॥
१. यातु म० । २. ख्यातुं म० । ३. नामेति सम्भावनायाम् । ४. मद्रासाधिपः म० ।
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