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सप्तसप्ततितमं पर्व
परमोत्कण्ठया युक्तः केतुतोरणमण्डितम् । पुरं विवेश सोऽकस्मादवैर्मानसगरवरैः ॥ ५६ ॥ स्वं गृहं संस्कृतं दृष्ट्वा भूषितां च स्वसुन्दरीन् । अपृच्छद्विदितोऽहं ते कथमेतीत्यवेदितम् ॥ ६० ॥ जग मुनिमुख्येन नाथ कीर्त्तिधरेण मे । अवधिज्ञानिना शिष्टं पृष्टनैतेन पारणाम् ॥ ६१ ॥ अवोचदीया युक्तो गत्वाऽसौ मुनिपुङ्गवम् । यदि त्वं वेत्सि तच्चिन्तां मदीया मम बोधय ॥ ६२॥ मुनिना गदितं चित्ते वयेदं विनिवेशितम् । यथा किल कथं मृत्युः कदा वा मे भविष्यति ॥ ६३ ॥ सत्वमस्माद्दिनादह्नि सप्तमे वज्रताडितः । मृत्वा भविष्यसि स्वस्मिन् कीटो विड्भवने महान् ॥ ६४॥ ततः प्रीतिङ्कराभिख्य मागस्य तनयं जगौ । स्वयाऽहं विड्गृहे जातो 'हन्तव्यः स्थूलकीटकः ॥ ६५ ॥ तथाभूतं स दृष्ट्वा तं तनयं हन्तुमुद्यतम् । विड्मध्यम विशद्दूरं मृत्युभीतिपरितः ॥ ६६ ॥ मुनिं प्रीतिकरो गत्वा पप्रच्छ भगवन् कुतः । संदिश्य मार्यमाणोऽसौ कीटो दूरं पलायते ॥ ६७ ॥ उवाच वचनं साधुर्विपादमिह मा कृथाः । योनिं यामश्नुते जन्तुस्तत्रैव रतिमेति सः ॥ ६८ ॥ आत्मनस्तत्कुरुश्रेयो मुध्यसे येन किल्विषात् । ननु स्वकृत सम्प्राप्तिप्रवणाः सर्वदेहिनः ॥ ६१ ॥ एवं भवस्थितिं ज्ञात्वा परमासुखकारिणीम् । प्रीतिङ्करो महायोगी बभूव विगतस्पृहः ॥ ७० ॥ शार्दूलविक्रीडितम्
एवं ते विविधा विभीषण न किं ज्ञाता जगत्संस्थितिच्छूरं कृतनिश्चयं विधिवशान्नारायणेनाहतम् । सङ्ग्रामेऽभिमुखं प्रधानपुरुषं शोचस्यहो रावणं
स्वार्थी सम्प्रति यच्च चित्तममुना शोकेन किं कारणम् ॥ ७१ ॥
की इच्छा से अपने घर की ओर लौट रहा था || ५८|| तीव्र उत्कंठासे युक्त होनेके कारण उसने मनके समान शीघ्रगामी घोड़ोंसे अकस्मात् ही पताकाओं और तोरणोंसे अलंकृत नगर में प्रवेश किया ||२६|| अपने घर को सजा हुआ तथा स्त्रीको आभूषणादिसे अलंकृत देख उसने पूछा कि विना कहे तुमने कैसे जान लिया कि ये आ रहे हैं ॥६०॥ स्त्रीने कहा कि हे नाथ! आज मुनियों में मुख्य अवधिज्ञानी कीर्तिधर मुनि पारणा के लिए आये थे मैंने उनसे आपके आनेका समय पूछा था तो उन्होंने कहा कि राजा आज ही अकस्मात् आवेंगे ॥३१॥ राजा अरिंदमको मुनिके भविष्यज्ञान पर कुछ ईर्ष्या हुई अतः वह उनके पास जाकर बोला कि यदि तुम जानते हो तो मेरे मन की बात बताओ || ६ || मुनिने कहा कि तुमने मनमें यह बात रख छोड़ी है कि मेरी कब और किस प्रकार मृत्यु होगी ? || ६३ || सो तुम आजसे सातवें दिन वज्रपात से मर कर अपने विष्ठागृहमें महान् कीड़ा हो भोगे || ६४ ॥ वहाँ से आकर राजा अरिंदमने अपने पुत्र प्रीतिकरसे कहा कि मैं विष्ठागृह में एक बड़ा कीड़ा होऊँगा सो तुम मुझे मार डालना ||३५||
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तदनन्तर जब पुत्र विष्ठागृह में स्थूल कीडाको देखकर मारनेके लिए उद्यत हुआ तब वह कीड़ा मृत्युके भय से भागकर बहुत दूर विष्ठा के भीतर घुस गया || ६६ || प्रीतिकर ने मुनिराज के पास जाकर पूछा कि हे भगवन् ! कहे अनुसार जब मैं उस कीड़ेको मारता हूँ तब वह दूर क्यों भाग जाता है ? ||६७ || मुनिराजने कहा कि इस विषय में विवाद मत करो। यह प्राणी जिस योनिमें जाता है उसीमें प्रीतिको प्राप्त हो जाता है || ६८ || इसीलिए आत्माका कल्याण करनेवाला वह कार्य करो जिससे कि आत्मा पापसे छूट जाय । यह निश्चित है कि सब प्राणी अपने द्वारा किये हुए कर्मका फल प्राप्त करने में ही लीन हैं ॥ ६६ ॥ इस प्रकार अत्यन्त दुःखको उत्पन्न करनेवाली संसार दशाको जानकर प्रीतिङ्कर निःस्पृह हो महामुनि हो गया || ७० || इस प्रकार भामण्डल्ट विभीषण से कहता है कि हे विभीषण ! क्या तुझे यह संसारकी बिविध दशा ज्ञात नहीं है जो
१. हन्तव्यं म० ।
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