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1998
पद्मपुराणे
अथ पद्माभसौमित्रौ साकं खेचरपुङ्गवैः । स्नेहगर्भ परिष्वज्य बापापूरितलोचनौ ||४५|| ऊचतुः करुणोक्तौ परिसान्त्वनकोविदौ । विभीषणमिदं वाक्यं लोकवृत्तान्तपण्डित ||४६ || राजवलं रुदित्वैवं विषादमधुना त्यज । जानास्येव ननु व्यक्तं कर्मणामिति चेष्टितम् ||४७ || पूर्वकर्मानुभावेन प्रमादं भजतां नृणाम् । प्राप्तव्यं जायतेऽवश्यं तत्र शोकस्य कः क्रमः ॥ ४८ ॥ प्रवर्त्तते यदाकार्ये जनो ननु तदैव सः । मृतश्विरमृते तस्मिन् किं शोकः क्रियतेऽधुना ॥ ४६ ॥ यः सदा परमप्रीत्या हिताय जगतो रतः । समाहितमतिर्वाढं प्रजाकर्मणि पण्डितः ॥५०॥ सर्वशास्त्रार्थसम्बोधक्षालितात्मापि रावणः । मोहेन बलिना नीतोऽवस्थामेतां सुदारुणाम् ||५१|| ret विनाशमेतेन प्रकारेणानुभूतवान् । नूनं विनाशकाले हि नृणां ध्वान्तायते मतिः ॥५२॥ रामीयवचनस्यान्ते प्रभामण्डलपण्डितः । जगाद वचनं बिभ्रन्माधुर्यं परमोत्कटम् ||५३ || विभीषण रणे भीमे युध्यमानो महामनाः । मृत्युना वीरयोग्येन रावणः स्वस्थितिं श्रितः ||५४ || किं तस्य पतितं यस्य मानो न पतितः प्रभोः । नन्वस्यन्तमसौ धन्यो यो सून्प्रत्यर्यमुञ्चत || ५५|| महासत्त्वस्य वीरस्य शोच्यं तस्य न विद्यते । शत्रुन्दमसमा लोके शोच्याः पार्थिवगोत्रजाः ॥५६॥ लक्ष्मीहरिध्वजोद्भूतो बभूवाचपुरे नृपः । अरिन्दम इति ख्यातः पुरन्दरसमश्रिया ॥५७॥ स जित्वा शत्रुसङ्घातं नानादेशव्यवस्थितम् । प्रत्यागच्छन्निजं स्थानं देवीदर्शनकांक्षया ॥५८॥
अथानन्तर जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे, जो करुणा प्रकट करने में उद्यत थे, सान्त्वना देने में निपुण थे, तथा लोक व्यवहारके पण्डित थे ऐसे राम-लक्ष्मण श्रेष्ठ विद्याधरोंके साथ विभीषणका स्नेहपूर्ण आलिङ्गन कर यह वचन बोले ॥४३-४३ ।। कि हे राजन् ! इस तरह रोना व्यर्थ है, अब विषाद छोड़ो, आप जानते हैं कि यह कर्मों की चेष्टा है ॥४७॥ पूर्व कर्म के प्रभाव से प्रमाद करनेवाले मनुष्यों को जो वस्तु प्राप्त होने योग्य है वह अवश्य ही प्राप्त होती है इसमें शोकका क्या अवसर है ? ॥४८६ ॥ मनुष्य जब अकार्य में प्रवृत्त होता है वह तभी मर जाता है फिर रावण तो चिरकाल बाद मरा है अतः अब शोक क्यों किया जाता है ? ॥ ४६ ॥ जो सदा परम प्रीतिपूर्वक जगत्का हित करने में तत्पर रहता था, जिसकी बुद्धि सदा सावधान रूप रहती थी, जो प्रजाके कार्य में पण्डित था, और समस्त शास्त्रों के अर्थ ज्ञानसे जिसकी आत्मा धुली हुई थी ऐसा रावण बलवान् मोहके द्वारा इस अवस्था को प्राप्त हुआ है ||५०-५२ ॥ उस रावणने इस अपराध से विनाशका अनुभव किया है सो ठीक ही है क्योंकि विनाशके समय मनुष्योंकी बुद्धि अन्धकार के समान हो जाती है ॥ ५२ ॥
तदनन्तर रामके कहने के बाद अतिशय चतुर भामण्डलने परमोत्कट माधुर्यको धारण करनेवाले निम्नांकित वचन कहे ||१३|| उसने कहा कि हे विभीषण ! भयंकर रणमें युद्ध करता हुआ महामनस्वी रावण वीरोंके योग्य मृत्युसे मर कर आत्मस्थिति अथवा वर्गस्थितिको प्राप्त हुआ है ||२४|| जिस प्रभुका मान नष्ट नहीं हुआ उसका क्या नष्ट हुआ ? अर्थात् कुछ नहीं । यथार्थ में रावण अत्यन्त धन्य है जिसने शत्रुके सम्मुख प्राण छोड़े || ५५ || वह तो महा धैर्यशाली वीर रहा अतः उसके विषय में शोक करने योग्य बात ही नहीं है । लोक में जो क्षत्रिय अरिंदमके समान हैं वे ही शोक करने योग्य हैं ॥ ५६ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है कि अक्षपुर नामा नगर में लक्ष्मी और हरिध्वजसे उत्पन्न हुआ अरिंदम नामका एक राजा था जो इन्द्रके समान सम्पत्ति से प्रसिद्ध था ||५७|| वह एक बार नाना देशों में स्थित शत्रु समूहको जीत कर अपनी स्त्रीको देखने
मनः न० । ४. प्रति + अरि + अमुञ्चत |
१. चिरं मृते म० । २. वीरयोगेन म० । ३ दूतः म० ।
स्वस्मिन् स्थितिः स्वस्थितिः ताम् । अथवा स्वः स्वर्गे स्थितिः स्वस्थिति: ताम् 'खर्परे शरिवा विसर्ग लोपो वक्तव्यः' इत्यनेन विकल्पेन विसर्गलोपात् । 'रणे निहताः स्वर्गं यान्ति' इति प्रसिद्धिः ।
५.
ध्वजो
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