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पद्मपुराणे
देखी पद्मावती कान्तिः प्रीतिः सन्ध्यावली शुभा। प्रभावती मनोवेगा रतिकान्ता मनोवती ॥१५॥ महादशैवमादीनां सहस्राणि सुयोषिताम् । परिवार्य पतिं चक्रुराक्रन्दं सुमहाशुचा ॥१६॥ काश्चिन्मोहं गताः सत्यः सिक्ताश्चन्दनवारिणा । समुत्प्लुतमृणालानां पझिनीनां श्रियं दधुः ।।१७|| आश्लिष्टदयिताः काश्चिद्गाढं मूर्छामुपागताः । अञ्जनादिलमासक्तसन्ध्यारेखाद्युतिं दधुः ॥१८॥
काश्चिदुरस्ताडनचञ्चलाः । घनाघनसमास तिडिन्मालाकृति श्रिताः ॥१६॥ विधाय बदनाम्भोज काचिदके सुविह्वला। वक्षःस्थलपरामर्शकारिणी मूर्छिता मुहुः ॥२०॥ हा हा नाथ गतः क्वासि त्यक्त्वा मामतिकातराम् । कथं नाऽपेक्षसे दुःखनिमग्नं जनमात्मनः ॥२४॥ स स्वं सत्त्वयुतः कान्तिमण्डनः परमद्युतिः । विभूत्या शक्रसकाशो मानी भरतभूपतिः ॥२२॥ प्रधानपुरुषो भूत्वा महाराज मनोरमः । किमर्थं स्वपिषि क्षोण्यां विद्याधरमहेश्वरः ॥२३॥ उत्तिष्ठ कान्त कारुण्य-पर स्वजनवत्सल । अमृतप्रतिम वाक्यं यच्छैकमपि सुन्दरम् ॥२४॥ अपराधविमुक्तानामस्माकं सक्तचेतसाम् । प्राणेश्वर किमित्येवं स्थितस्त्वं कोपसङ्गतः ।।२५।। परिहासकथासक्तं दन्तज्योत्स्नामनोहरम् । वदनेन्दुमिमं नाथ सकृद्धारय पूर्ववत् ॥२६॥ वराङ्गनापरिक्रीडास्थाने स्मिऽन्नपि सुन्दरे । वक्षःस्थले कथं न्यस्तं पदं ते चक्रधारया ॥२७॥ बन्धूकपुष्पसङ्काशस्तवायं दशनच्छदः । नार्मोत्तरप्रदानाय कथं स्फुरति नाधुना ॥२८॥ प्रसीद न चिरं कोपः सेवितो जातुचित्वया । प्रत्युतास्माकमेव त्वमकरोः सान्त्वनं पुरा ॥२६॥
पदा, पद्मावती, सुखा, देवी, पद्मावती, कान्ति, प्रीति, सन्ध्यावली, शुभा, प्रभावती, मनोवेगा, रतिकान्ता और मनोवती, आदि अठारह हजार स्त्रियाँ पतिको घेर कर महाशोक से रुदन करने लगीं ॥१२-१६।। जिनके ऊपर चन्दनका जल सींचा गया था ऐसी मूर्छाको प्राप्त हुई कितनी ही स्त्रियाँ, जिनके मृणाल उखाड़ लिये गये हैं ऐसी कमलिनियोंकी शोभा धारण कर रहीं थीं ॥१७॥ पतिका आलिङ्गन कर गाढ़ मूर्छाको प्राप्त हुई कितनी ही स्त्रियां अञ्जवगिरिसे संसक्त संध्याको कान्तिको धारण कर रही थीं ॥१८॥ जिनकी मूर्छा दूर हो गई थी तथा जो छातीके पीटनेमें चश्चल थीं ऐसी कितनी ही स्त्रियां मेघ कौंधती हुई विद्युन्मालाकी आकृतिको धारण कर रही थीं ॥१६॥ कोई एक स्त्री पतिका मुखकमल अपनी गोदमें रख अत्यन्त विह्वल हो रही थी तथा वक्षःस्थलका स्पर्श करती हुई बारबार मूर्च्छित हो रही थी ॥२०॥
वे कह रही थीं कि हाय हाय हे नाथ! तुम मुझ अतिशय भीरुको छोड़ कहाँ चले गये हो? दुःखमें डूबे हुए अपने लोगोंकी ओर क्यों नहीं देखते हो ? ॥२१॥ हे महाराज ! तुम तो धैर्य गुणसे सहित हो, कान्ति रूपी आभूषणसे विभूषित हो. परम कीर्ति के धारक हो, विभूतिमें इन्द्र के समान हो, मानी हो, भरत क्षेत्रके स्वामी हो, प्रधान पुरुष हो, मनको रमण करने वाले हो, और विद्याधरोंके राजा हो फिर इसतरह पृथिवी पर क्यों सो रहे हो ? ॥२२-२३।। हे कान्त ! हे दयातत्पर, हे स्वजनवत्सल ! उठो एक बार तो अमृत तुल्प सुन्दर वचन देओ ॥२४॥ हे प्राणनाथ ! हम लोग अपराधसे रहित हैं तथा हम लोगोंका चित्त एक आप ही में आसक्त है फिर क्यों इसतरह कोपको प्राप्त हुए हो ? ॥२५॥ हे नाथ! परिहासकी कथामें तत्पर और दांतोंकी कान्ति रूपी चांदनीसे मनोहर इस मुख रूपी चन्द्रमाको एक बार तो पहलेके समान धारण करो ॥२६।। तुम्हारा यह सुन्दर वक्षःस्थल उत्तम स्त्रियोंका क्रीड़ा स्थल है फिर भी इसपर चक्र धाराने कैसे स्थान जमा लिया ? ॥२७॥ हे नाथ ! दुपहरियाके फूलके समान लाल लाल यह तुम्हारा ओंठ क्रीड़ा पूर्ण उत्तर देनेके लिए इस समय क्यों नहीं फड़क रहा है ? ॥२८॥ प्रसन्न होओ, तुमने कभी इतना लम्बा
१. सकृद्वारय म० ।
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