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सप्तसप्ततितमं पर्व
सोदरं पतितं दृष्ट्वा महादुःखसमन्वितः । क्षुरिकायां करं चक्रे स्ववधाय विभीषणः ॥ १ ॥ वारयन्ती वधं तस्य निश्चेष्टीकृतविग्रहा । मूर्च्छा कालं कियन्तं चिचकारोपकृतिं पराम् ॥२॥ लब्धसंज्ञो जिघांसुः स्वं तापं दुःसहमुद्दहन् । रामेण विधुतः कृच्छ्रादुत्तीर्थं निजतो रथात् ॥ ३॥ त्यक्तावकवचो भूम्यां पुनर्मूर्द्धामुपागतः । प्रतिबुद्धः पुनश्चक्रे विलापं करुणाकरम् ||४|| हा भ्रातः करुणोदार शूर संश्रितवत्सल । मनोहर कथं प्राप्तोऽस्यवस्थामिति पापिकाम् ||५|| किं तन्मद्वचनं नाथ गद्यमानं हितं परम् । न मानितं यतो युद्धे वीक्षे त्वां चक्रताडितम् ॥ ६ ॥ कष्टं भूमितले देव विद्याधरमहेश्वर । कथं सुप्तोऽसि लङ्केश भोगदुर्ललितात्मकः ॥७॥ उत्तिष्ठ देहि मे वाक्यं चारुवाक्य गुणाकर । साधारय कृपाधार मग्नं मां शोकसागरे ॥ ८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे ज्ञातदशानन निपातनम् । क्षुब्धमन्तःपुरं शोकमहाकल्लोलसङ्कुलम् ॥६॥ सर्वाश्च वनिता वाष्पधारासिक्कमहीतलाः । रणक्षोणीं समाजग्मुर्मुहुः प्रस्खलितक्रमाः ॥ १० ॥ तं चूडामणिसङ्काशं चितेरालोक्य सुन्दरम् । निश्चेतनं पतिं नार्यो निपेतुरतिवेगतः ॥११॥ रम्भा चन्द्रानना चन्द्रमण्डला प्रवरोवंशी । मन्दोदरी महादेवी सुन्दरी कमलानना ॥१२॥ रूपिणी रुक्मिणी शीला रत्नमाला तनूदरी | श्रीकान्ता श्रीमती भद्रा कनकाभा मृगावती ॥१३॥ श्रीमाला मानवी लक्ष्मीरानन्दानङ्गसुन्दरी । वसुन्धरा तडिन्माला पद्मा पद्मावती सुखा ॥ १४ ॥
अथानन्तर भाईको पड़ा देख महादुःखसे युक्त विभीषणने अपना वध करनेके लिए छुरीपर हाथ रखा ||१|| सो उसके इस वधको रोकती तथा शरीरको निश्श्रेष्ट करती मूर्च्छाने कुछ काल तक उसका बड़ा उपकार किया ||२|| जब सचेत हुआ तब पुनः आत्मघातकी इच्छा करने लगा सो राम ने अपने रथ से उतर कर उसे बड़ी कठिनाई से पकड़ कर रक्खा ||३|| जिसने अब और कवच छोड़ दिये थे ऐसा विभीषण पुनः मूर्च्छित हो पृथिवी पर पड़ा रहा । तत्पश्चात् जब पुनः सचेत हुआ तब करुणा उत्पन्न करने वाला विलाप करने लगा ||४|| वह कह रहा था कि हे भाई ! हे उदार करुणाके धारी । हे शूर वीर ! हे आश्रितजनवत्सल ! हे मनोहर ! तुम इस पाप पूर्ण दशाको कैसे प्राप्त हो गये ? ||५|| हे नाथ । क्या उस समय तुमने मेरे कहे हुए हितकारी वचन नहीं माने इसीलिए युद्ध में तुम्हें चक्र से ताड़ित देख रहा हूँ || ६ || हे देव ! हे विद्याधरों के अधिपति ! हे लंका स्वामी ! तुम तो भोगों से लालित हुए थे फिर आज पृथिवीतल पर क्यों सो रहे ही ? ||७|| हे सुन्दर वचन बोलने वाले ! हे गुणोंके खानि ! उठो मुझे बचन देओ मुझसे वार्तालाप करो । हे कृपाके आधार ! शोक रूपी सागर में डूबे हुए मुझे सान्त्वना देओ ||८||
तदनन्तर इसी बीच में जिसे रावणके गिरनेका समाचार विदित हो गया था ऐसा अन्तःपर शोककी बड़ी बड़ी लहरोंसे व्याप्त होता हुआ चुभित हो उठा ||६|| जिन्होंने अश्रुधारा से पृथिवी तलको सींचा था तथा जिनके पैर बारबार लड़खड़ा रहे थे ऐसी समस्त स्त्रियां रणभूमि
आई ||१०|| और पृथिवीके चूडामणिके समान सुन्दर पतिको निश्चेतन देख अत्यन्त वेग से भूमिपर गिर पड़ीं ॥ ११ ॥ रम्भा, चन्द्रानना, चन्द्रमण्डला, प्रवरा, उर्वशी, मन्दोदरी, महादेवी, सुन्दरी, कमलानना, रूपिणी, रुक्मिणी, शीला, रत्नमाला, तनूदरी, श्रीकान्ता, श्रीमती, भद्रा, कनकाभा, मृगावती, श्रीमाला, मानवी, लक्ष्मी, आनन्दा, अनङ्गसुन्दरी, वसुन्धरा, तडिन्माला,
१. कियन्तं च चकारोप- म० । २. विधूतः म० । ३. बीदये ज० । ४. ज्ञातं दशानन- म० । ५. मण्डलाग्ज म० ।
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