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षट् सप्ततितमं पर्व
हिरण्यकशिपुः क्षिप्तं हरिणेव तदायुधम् । निवारयितुमुद्यक्तः संरब्धो रावणः शरैः ॥३०॥ भूयश्चण्डेन दण्डेन जविना पविना पुनः । तथाऽपि डौकते चक्रं वक्र पुण्यपरिक्षये ॥३१॥ चन्द्रहासं समाकृष्य ततोऽभ्यर्णत्वमागतम् । जघान गहनोत्सर्पिस्फुलिंगांचितपुष्करम् ॥३२॥ स्थितस्याभिमुखस्यास्य राक्षसेन्द्रस्य शालिनः । तेन चक्रेण निर्भिन्नं वज्रसारमुर:स्थलम् ॥३३॥ उत्पातवातसन्नुन्नमहाञ्जनगिरिप्रभः । पपात रावणः क्षोण्यां पतिते पुण्यकर्मणि ॥३४॥ रतेरिव पतिः सुप्तश्च्युतः स्वर्गादिवामरः । महीस्थितो राजासौ संदष्टदशनच्छदः ॥३५॥ स्वामिनं पतितं दृष्ट्वा सैन्यं सागरनिस्वनम् । शीर्ण वितानतां प्राप्तं पर्यस्तच्छत्रकेतुकम् ॥३६॥ उत्सारय रथं देहि मार्गमश्वमितो नय । प्राप्तोऽयं पृष्ठतो हस्ती विमानं कुरु पावतः ॥३७॥ पतितोऽयमहो नाथः कष्टं जातमनुत्तमम् । इत्यालापमलं भ्रान्तं बलं तत्रैव विह्वलम् ॥३८॥ अन्योन्यापूरणासंक्तान्महाभयविकम्पितान् । दृष्ट्वा निःशरणानेताजनान् पतितमस्तकान् ॥३६॥ किष्किन्धपतिवैदेहसमोरणसुतादयः । न भेतव्यं न भेतव्यमिति साधारमानयन् ॥४०॥ भ्रमितोपरिवस्त्रान्तपल्लवानां समन्ततः। सैन्यमाश्वासितं तेषां वाक्यैः कर्णरसायनैः ॥४१॥
रुचिरावृत्तम् तथाविधां श्रियमनुभूय भूयसीं कृतादभुतां जगति समुद्रवारिते । परिक्षये सति सुकृतस्य कर्मणः खलामिमां प्रकृतिमितो दशाननः ॥४२॥
भयंकर तथा प्रलयकालीन सूर्यके समान कान्तिका धारक था ॥२६॥ जिसतरह पूर्वमें, नारायण के द्वारा चलाये हुए चक्रको रोकने के लिए हिरण्यकशिपु उद्यत हुआ था उसी प्रकार क्रोधसे भरा रावण वाणोंके द्वारा उस चक्रको रोकनेके लिए उद्यत हुआ ।।३०।। यद्यपि उसने तीक्ष्ण दण्ड और वेगशाली वनके द्वारा भी उसे रोकनेका प्रयत्न किया तथापि पुण्य क्षीण हो जानेसे वह कुटिल चक्र रुका नहीं किन्तु उसके विपरीत समीप ही आता गया ॥३१॥
___ तदनन्तर रावणने चन्द्रहास खङ्ग खींचकर समीप आये हुए चक्ररत्न पर प्रहार किया सो उसकी टक्करसे प्रचुर मात्रामें निकलने वाले तिलगोंसे आकाश व्याप्त हो गया ॥३२॥ तत्पश्चात् उस चक्ररत्नने सन्मुख खड़े हुए शोभाशाली रावणका वज्रके समान वक्षःस्थल विदीर्ण कर दिया ॥३३॥ जिससे पुण्य कर्म क्षीण होने पर प्रलय कालकी वायुसे प्रेरित विशाल अञ्जनगिरिके समान रावण पृथिवी पर गिर पड़ा ॥३४॥ ओंठोंको डशने वाला रावण पृथिवी पर पड़ा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कामदेव ही सो रहा हो अथवा स्वर्गसे कोई देव ही आकर च्युत हुआ हो ॥३५।। स्वामीको पड़ा देख समुद्र के समान शब्द करने वाली जीर्ण शीर्ण सेना छत्र तथा पताकाएँ फेंक चौंड़ी हो गई अर्थात् भाग गई ॥३६।। 'रथ हटाओ, मार्ग देओ, घोड़ा इधर ले जाओ, यह पीछेसे हाथी आ रहा है, विमानको बगलमें करो, अहो! यह स्वामी गिर पड़ा है, बड़ा कष्ट हुआ' इस प्रकार वार्तालाप करती हुई वह सेना विह्वल हो भाग खड़ी हुई ॥३७-३८॥
तदनन्तर जो परस्पर एक दूसरे पर पड़ रहे थे, जो महाभयसे कंपायमान थे, और जिनके मस्तक पृथिवी पर पड़ रहे थे ऐसे इन शरण हीन मनुष्योंको देख कर सुग्रीव भामण्डल तथा हनूमान् आदिने 'नहीं डरना चाहिए' 'नहीं डरना चाहिए' आदि शब्द कह कर सान्त्वना प्राप्त कराई ॥३६-४०॥ जिन्होंने सब ओर ऊपर वस्त्रका छोर घुमाया था ऐसे उन सुग्रीव आदि महा पुरुषोंके, कानों के लिए रसायनके समान मधुर वचनों से सेना सान्त्वनाको प्राप्त हुई ॥४१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! समुद्रान्त पृथिवीमें अनेक आश्चर्यके कार्य करने वाली उस प्रकारको
१. हिरण्यकशिपुक्षिप्तं म०१२. शक्तान्- म०, क० । ३. भ्रमितोपरिवस्त्रान्तःपल्लवानां म०, ज०।
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