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पद्मपुराणे
भरताद्याः सधन्यास्ते पुरुषा भुवनोत्तमाः । चक्राकं ये परिस्फीतं राज्यं कण्टकवर्जितम् ॥१४॥ विषमिश्रामवत्यक्त्वा जैनेन्द्रं व्रतमाश्रिताः। रत्नत्रयं समाराध्य प्रापुश्च परमं पदम् ॥१५॥ मोहेन बलिनाऽत्यन्तं संसारस्फातिकारिणा । पराजितो वराकोऽहं घिङमामीशचेष्टितम् ॥१६॥ उत्पनचक्ररत्नेन लचमणेनाथ रावणः । विभीषणास्यमालोक्य जगदे पुरुतेजसा ॥१७॥ अद्यापि खगसम्पूज्य समय जनकात्मजाम् । रामदेवप्रसादेन जीवामीति वचो वद ॥१८॥ ततस्तथाविधवेयं तव लक्ष्मीरवस्थिता । विधाय मानभङ्ग हि सन्तो यान्ति कृतार्थताम् ॥१६॥ रावणेन ततोऽवोचि लचमणः स्मितकारिणा । अहो कारणनिर्मुक्तो गर्वः क्षुद्रस्य ते मुधा ॥२०॥ दर्शयाम्यद्य तेऽवस्था यां तामनुभवाधम । अहं रावण एवाऽसौ स च त्वं धरणीचरः ॥२१॥ लषमणेन ततोऽभाणि किमत्र बहभाषितैः । सर्वथाऽहं समुत्पन्नो हन्ता नारायणस्तव ॥२२॥ उक्तं तेन निजाकूताद्यदि नारायणायसे । इच्छामात्रात् सुरेन्द्रत्वं कस्मान प्रतिपद्यसे ॥२३॥ निर्वासितस्य ते पित्रा दुःखिनो वनचारिणः । अपनपाविहीनस्य ज्ञाता केशवता मया ॥२४॥ नारायणो भवाऽन्यो वा यत्ते मनसि वर्तते । विस्फूजितं करोम्येष तव भग्नं मनोरथम् ॥२५॥ अनेनालातचक्रण किल स्वं कृतितां गतः । अथवा क्षुदजन्तूनां खलेनाऽपि महोत्सवम् ॥२६॥ सहामीभिः खगैः पापैः सचक्र सहवाहनम् । पाताले त्वां नयाम्यद्य कथितेनापरेण किम् ॥२७॥ एवमुक्तं समाकर्ण्य नवनारायणो रुषा । प्रभ्रम्य चकमुद्यम्य चिक्षेप प्रति रावणम् ॥२८॥
वज्रप्रभवमेघौघघोर निर्घोषभीषणम् । प्रलयर्कसमच्छायं तच्चक्रमभवत्तदा ॥२६॥ निन्दित हैं ॥१३॥ वे संसार श्रेष्ठ भरतादि पुरुष धन्य हैं जो चक्ररत्नसे सहित निष्कण्टक बिशाल राज्यको विष मिश्रिते. अन्नके समान छोड़कर जिनेन्द्र सम्बन्धी व्रतको प्राप्त हुए तथा रत्नत्रयकी आराधाना कर परम पदको प्राप्त हुए ॥१४-१५।। मैं दीन पुरुष संसार वृद्धिका अतिशय कारण जो बलवान् मोह कर्म है उसके द्वारा पराजित हुआ हूँ। ऐसी चेष्टाको धारण करने वाले मुझको धिक्कार है ॥१६॥
अथानन्तर जिन्हें चक्ररत्न उत्पन्न हआ था ऐसे विशाल तेजके धारक लक्ष्मणने विभीषण का मुख देख कर कहा कि हे विद्याधरोंके पूज्य ! यदि अब भी तुम सीताको सौंप कर यह वचन कहो कि मैं भी रामदेवके प्रसादसे जीवित हूँ तो तुम्हारी यह लक्ष्मी ज्यों की त्यों अवस्थित है क्यों कि सत्पुरुष मान भङ्ग करके ही कृतकृत्यताको प्राप्त हो जाते हैं ॥१७-१६॥ तव मन्द हास्य करने वाले रावणने लक्ष्मणसे कहा कि अहो! तुझ क्षुद्रका यह अकारण गर्व करना व्यर्थ है।॥२०॥ अरे नीच ! मैं आज तुझे जो दशा दिखाता हूँ उसका अनुभव कर । मैं वह रावण ही हूँ और तू वही भूमिगोचरी है ॥२१॥ तब लक्ष्मणने कहा कि इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? मैं सव तरहसे तुम्हें मारने वाला नारायण उत्पन्न हुआ हूँ ।।२२।। तदनन्तर रावणने व्यङ्ग पूर्ण चेष्टा बनाते हुए कहा कि यदि इच्छा मात्रसे नारायण बन रहा है तो फिर इच्छा मात्रसे इन्द्रपना क्यों नहीं प्राप्त कर लेता ।।२३॥ पिताने तुझे घरसे निकाला जिससे दुखी होता हुआ वन वनमें भटकता रहा अब निर्लज्ज हो नारायण बनने चला है सो तेरा नारायणपना मैं खूब जानता हूँ ॥२४॥ अथवा तू नारायण रह अथवा जो कुछ तेरे मनमें हो सो बन जा परन्तु मैं लगे हाथ तेरे मनोरथको भङ्ग करता हूँ ॥२५॥ त् इस अलातचक्रसे कृत-कृत्यताको प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्यों कि क्षुद्र जन्तुओंको दुष्ट वस्तुसे भी महान उत्सव होता है ॥२६॥ अथवा अधिक कहने से क्या? मैं आज तझे इन पापी विद्याधरोंके साथ चक्रके साथ और वाहनके साथ सीधा भेजता हूँ ॥२७॥ यह वचन सुन नूतन नारायण-लक्ष्मणने क्रोध वश घुमाकर रावणको ओर चक्ररम फंका ॥२८॥ उस समय वह चक्र वज्रको जन्म देने वाले मेघ समूहकी घोर गर्जनाके समान १. स्फीति म० । २. धरणीधरः म० । ३. करोत्येष म० । ४. भग्नमनोरथं म । For Private & Personal Use Only
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