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पद्मपुराणे
संभ्रमं परमं बिभ्रत्सुग्रीवो गदया तदा । मण्डलाग्रेण तीचणेन प्रभामण्डलसुन्दरः ॥५६॥ अरातिप्रतिकूलेन शूलेनासौ विभीषणः । उल्कामुद्गरलांगूलकनकायमरुत्सुतः ॥५७॥ अंगदः परिधेनाङ्गः कुठारेणोरुतेजसा । शेषा अपि तथा शेषः शस्त्रैः खेचरपुङ्गवाः ॥५॥ एकीभूय समुद्युक्ता अपि जीवितनिःस्पृहाः । ते निवारयितुं शेकुर्न तस्विदशपालितम् ॥५६॥ तेनाऽऽगत्य परीत्य त्रिविनयस्थितरक्षकम् । सुखं शान्तवपुः स्वैरं लक्ष्मणस्य करे स्थितम् ॥६॥
उपजातिवृत्तम्। माहात्म्यमेतत्सुसमासतस्ते निवेदितं कर्तृ सुविस्मयस्य । रामस्य नारायणसङ्गतस्य महर्द्धिकं श्रेणिक ! लोकतुङ्गम् ॥६॥ एकस्य पुण्योदयकालभाजः सञ्जायते नुः परमा विभूतिः ।
पुण्यक्षयेऽन्यस्य विनाशयोगश्चन्द्रोऽभ्युदेत्येति रवियथाऽस्तम् ॥३२॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे चक्ररत्नोत्पत्तिवर्णनं नाम पञ्चसप्ततितमं पर्व ॥७॥
त्रिशूलसे, हनूमान् उल्का, मुगर, लाङ्गुल तथा कनक आदिसे, अङ्गद परिघसे, अङ्ग अत्यन्त तीक्ष्ण कुठारसे और अन्य विद्याधर राजा भी शेष अस्त्र-शस्त्रांसे एक साथ मिल कर जीवनकी आशा छोड़ उसे रोकनेके लिए उद्यत हुए पर वे सब मिलकर भी इन्द्रके द्वारा रक्षित उस चक्ररत्नको रोकनेमें समर्थ नहीं हो सके ॥५४-५६।। इधर रामकी सेनामें व्यग्रता बढ़ी जा रही थी पर भाग्य की बात देखो कि उसने आकर लक्ष्मणकी तीन प्रदक्षिणाएं दी, उसके सब रक्षक विनयसे खड़े हो गये, उसका आकार सुखकारी तथा शान्त हो गया और वह स्वेच्छासे लक्ष्मणके हाथमें आकर रुक गया ॥६०॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैंने तुझे राम-लक्ष्मणका यह अत्यन्त आश्चर्यको करने वाला महा विभूतिसे सम्पन्न एवं लोकश्रेष्ठ माहात्म्य संक्षेपसे कहा है ॥६१।। पुण्योदयके कालको प्राप्त हुए एक मनुष्यके परम विभूति प्रकट होती है तो पुण्यका क्षय होने पर दूसरे मनुष्यके विनाशका योग उपस्थित होता है । जिस प्रकार कि चन्द्रमा उदित होता है और सूर्य अस्तको प्राप्त होता है ॥६२॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें लक्ष्मणके चक्ररत्नकी
उत्पत्तिका वर्णन करने वाला पचहत्तरवां पर्व पूर्ण हुआ ॥५॥
१. पारदेनांग: म । २. स्थितिरक्षकम् म०। ३. करस्थितम् म०। ४. पुरुषस्य । Jain Education International
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