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पञ्चसप्ततितमं पर्व
युगावसानमध्याह्नसहस्त्र किरणप्रभम् । परपक्षक्षयतीवंश्यंकर लमचिन्तयत् ॥४३॥ अप्रमेयप्रभाजालं मुक्ताजालपरिष्कृतम् । स्वयंप्रभास्वरं दिव्यं वज्रतुण्डं महाद्भुतम् ||१४|| नानारत्नपरीताङ्ग दिव्यमालानुलेपनम् । अग्निप्राकारसङ्काशैवारामण्डलदीधिति ॥४५॥ वैडूर्यारसहस्त्रेण युक्तं दर्शनदुःसहम् । सदा यक्षसहस्रेण कृतरक्षं प्रयत्नतः ॥ ४६॥ महासंरंभसंबर्द्धकृतान्ताननसन्निभम् । चिन्तानन्तरमेतस्य चक्रं सन्निहितं करे ॥४७॥ कृतस्तत्र प्रभास्त्रेण निष्प्रभो ज्योतिषां पतिः । चित्रापिंतरविच्छायमात्रशेपो व्यवस्थितः ॥४८॥ गन्धर्वाऽप्सरसो विश्वावसुतुम्बुरुनारदाः । परित्यज्य रणप्रेक्षां गताः क्वापि विगीतिकाः ॥४६॥ मर्तव्यमिति निश्चित्य तथाप्यत्यन्तधीरधीः । शत्रुं तथाविधं वीच्य पद्मनाभानुजोऽवदत् ॥५०॥ सङ्गतेनामुना किं एवं स्थितोऽस्येवं' कदर्यवत् । शक्तिश्चेदस्ति ते काचित्प्रहरस्व नराधम ॥५१॥ इत्युक्तः परमं क्रुद्धो दन्तदष्टरदच्छदः । मण्डलीकृत विस्फारिप्रभापटललोचनः ॥५२॥ क्षुब्धमेव कुलस्वानं प्रभ्रम्य सुमहाजवम् । चिक्षेप रावणश्चक्रं जनसंशयकारणम् ॥५३॥ दृष्ट्वाऽभिमुखमागच्छत्तदुत्पातार्कसंनिभम् । निवारयितुमुद्युक्तो वज्रास्यैर्लक्ष्मणः शरैः ॥ ५४ ॥ वज्रावर्त्तेन पद्माभो धनुषा वेगशालिना । हलेन चोग्रपोत्रेण भ्रामितेनान्यबाहुन ॥५५॥
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अत्यन्त भयंकर युद्ध होता है तब तक क्रोध से प्रदीप्त रावणने कुछ स्वभावस्थ हो कर उस चक्र रत्नका चिन्तन किया जो कि प्रलयकालीन मध्याह्नके सूर्यके समान प्रभापूर्ण था तथा शत्रु पक्षका क्षय करनेमें उन्मत्त था ॥४२-४३ ॥
तदनन्तर- जो अपरिमित कान्तिके समूहका धारक था, मोतियोंकी झालर से युक्त था, स्वयं देदीप्यमान था, दिव्य था, वज्रमय मुख से सहित था, महा अद्भुत था, नाना रत्नोंसे जिसका शरीर व्याप्त था, दिव्य मालाओं और विलेपन से सहित था, जिसकी धारोंकी मण्डलाकार किरणें अग्निके कोट के समान जान पड़ती थीं, जो वैड्र्यमणिनिर्मित हजार आरोंसे सहित था, जिसका देखना कठिन था, हजार यक्ष जिसकी सदा प्रयत्न पूर्वक रक्षा करते थे, और जो प्रलय काल सम्बद्ध यमराज के मुख के समान था ऐसा चक्र, चिन्ता करते ही उसके हाथ में आ गया ।।४४-४७ ।। उस प्रभापूर्ण दिव्य अस्त्र के द्वारा सूर्य प्रभा हीन कर दिया गया जिससे वह चित्रलिखित सूर्य के समान कान्ति मात्र है शेष जिसमें ऐसा रह गया || ४८ || गन्धर्व, अप्सराएं, विश्वावसु, तुम्बुरु, और नारद युद्धका देखना छोड़ गायन भूल कर कहीं चले गये ||४६ || 'अब तो मरना ही होगा' ऐसा निश्चय यद्यपि लक्ष्मणने कर लिया था तथापि वे अत्यन्त धीर बुद्धि के धारक हो उस प्रकारके शत्रुकी ओर देख जोरसे बोले कि रे नराधम ! इस चक्रको पाकर भी कृपणके समान इस तरह क्यों खड़ा है यदि कोई शक्ति है तो प्रहार कर ||५०-५१ || इतना कहते ही जो अत्यन्त कुपित हो गया था, जो दांतोंसे ओठको डरा रहा था, तथा जिसके नेत्रोंसे मण्डलाकार विशाल कान्तिका समूह निकल रहा था ऐसे राबणने घुमा कर चक्ररत्न छोड़ा । वह चक्ररत्न क्षोभको प्राप्त हुए मेघमण्डल के समान भयंकर शब्द कर रहा था, महावेगशाली था, और मनुष्यों के संशयका कारण था ।। ५२-५३ ।।
तदनन्तर प्रलय कालके सूर्यके समान सामने आते हुए उस चक्ररत्नको देख कर लक्ष्मण बज्रमुखी बाणोंसे उसे रोकने के लिए उद्यत हुए ||३४|| रामचद्रजी एक हाथसे वेगशाली वस्त्रावर्त नामक धनुषसे और दूसरे हाथ से घुमाये हुए तीक्ष्णमुख हलसे, अत्यधिक क्षोभको धारण करने वाला सुग्रीव गदासे, भामण्डल तीक्ष्ण तलवारसे, विभीषण शत्रुका विघात करने वाले
१. किरणप्रभः म०, ० । २. छवि म०, क० । ३. संकाशं धारामण्डलदीधिति म० । ४. संबंध म० । ५. प्रभास्तेन ज०, क० । ६. ऽस्यैवं म० । ७. चोग्रमात्रेण क० । ८. भ्राम्यते नान्यवाहुना म० । ६-३
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