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पञ्चसप्ततितमं पर्व
सोऽयं महति संग्रामे वर्तते संशयावहे । भविष्यति कथं त्वेतदिति विमो न दुःखिताः ॥१४॥ अस्य मानवचन्द्रस्य हृदयेशस्य या गतिः । लक्ष्मीधरकुमारस्य सैवास्माभिविनिश्चिता ॥१५॥ मनोहरस्वनं तासां श्रुत्वा तद्वचनं ततः । चक्षुरूचं नियुञ्जानो लचमणस्ता व्यलोकत ॥१६॥ तद्दर्शनात्परं प्राप्ताः प्रमोदं ताः सुकन्यकाः । सिद्धार्थः सर्वथा नाथ भवेत्युदगिरन् स्वनम् ||१७॥ सिद्धार्थशब्दनात्तस्मात् स्मृत्वा विहसिताननः । अस्त्रं सिद्धार्थनामानं लक्ष्मणः कृतितां गतः ||1|| स सिद्धार्थमहास्त्रेण क्षिप्रं विघ्नविनायकम् । अस्त्रमस्तगतं कृत्वा सुदीप्तं यो मुद्यतः-।।१६।। गृह्णाति रावणो यद्यदस्त्रं शस्त्रविशारदः । छिनत्ति लक्ष्मणस्तत्तत्परमास्त्रविशारदः ॥२०॥ ततः पतत्रिसंघातैरस्य पत्रीन्द्रकेतुना । सर्वां दिशः परिच्छन्ना जीमूतैरिव भूभृतः ॥२३॥ ततो भगवती विद्यां बहुरूपविधायिनीम् । प्रविश्य रक्षसामीशः समरक्रीडनं श्रितः ॥२२॥ लक्ष्मीधरशरैस्तीचणः शिरो लक्कापुरीप्रभोः । छिन्नं छिन्नमभूभूयः श्रीमत्कुण्डलमण्डितम् ।।२३।। एकस्मिन् शिरसिच्छिन्न शिरोद्वयमजायत । तयोरुत्कृत्तयोर्वृद्धि शिरांसि द्विगुणां ययुः ॥२४॥ निकृत्ते बाहुयुग्मे च जज्ञे बाहुचतुष्टयम् । तस्मिन् छिन्ने ययौ वृद्धि द्विगुणा बाहुसन्ततिः ॥२५॥ सहस्ररुत्तमाङ्गानां भुजानां चातिभूरिभिः । पद्मखण्डरगण्यैश्च ज्ञायते रावणो वृतः ॥२६॥ नभःकरिकराकारैः करः केयूरभूषितः । शिरोभिश्चाभवत्पूर्ण शस्त्ररत्नांशुपिंजरम् ॥२७॥
उससे हमलोगोंको विदित हुआ। साथ ही स्वयंवरमें जबसे हमलोगोंने इसे देखा था तभोसे यह हमारे मनमें स्थित था ।।१३॥ वही लक्ष्मण इस समय जीवन-मरणके संशयको धारण करनेवाले इस महासंग्राममें विद्यमान है । सो संग्राममें क्या कैसा होगा यह हमलोग नहीं जानती इसीलिए दुःखी हो रही हैं ॥१४॥ मनुष्योंमें चन्द्रमाके समान इस हृदयवल्लभ लक्ष्मणकी जो दशा होगी वही हमारी होगी ऐसा हम सबने निश्चित किया है ॥१५॥
तदनन्तर उन कन्याओंके मनोहर वचन सुन लक्ष्मणने ऊपरकी ओर नेत्र उठाकर उन्हें देखा ।।१६।। लक्ष्मणके देखनेसे वे उत्तम कन्याएँ परम प्रमोदको प्राप्त हो इस प्रकारके शब्द बोलीं कि हे नाथ ! तुम सब प्रकारसे सिद्धार्थ होओ-तुम्हारी भावना सब तरह सिद्ध हो ॥१७॥ उन कन्याओंके मुखसे सिद्धार्थ शब्द सुनकर लक्ष्मणको सिद्धार्थ नामक अस्त्रका स्मरण आ गया जिससे उनका मुख खिल उठा तथा वे कृतकृत्यताको प्राप्त हो गये ।।१८।। फिर क्या था, शीघ्र ही सिद्धार्थ महास्नके द्वारा रावणके विघ्नविनाशक अस्त्रको नष्टकर लक्ष्मण बड़ी तेजीसे युद्ध करनेके लिए उद्यत हो गये ॥१६॥ शस्त्रोंके चलानेमें निपुण रावण जिस-जिस शस्त्रको ग्रहण करता था परमास्त्रोंके चलानेमें निपुण लक्ष्मण उसी-उसी शस्त्रको काट डालता था।।२०।। तदनन्तर ध्वजामें पतिराज-गरुडका चिह्न धारण करनेवाले लक्ष्मणके वाणसमूहसे सब दिशाएँ इस प्रकार व्याप्त हो गई जिस प्रकार कि मेघोंसे पर्वत व्याप्त हो जाते हैं ।।२१।।
___ तदनन्तर रावण भगवती बहुरूपिणी विद्यामें प्रवेश कर युद्ध-क्रीड़ा करने लगा ॥२२॥ यही कारण था कि उसका शिर यद्यपि लक्ष्मण के तीक्ष्ण बाणों से बार-बार कट जाता था तथापि वह बार-बार देदीप्यमान कुण्डलोंसे सुशोभित हो उठता था।।२३।एक शिर कटता था तो दो शिर उत्पन्न हो जाते थे और दो कटते थे तो उससे दुगुनी वृद्धिको प्राप्त हो जाते थे ॥२४॥ दो भुजाएँ कटती थीं तो चार हो जाती थीं और चार कटती थीं उससे दूनी हो जाती थीं ॥२५॥ हजारों शिरों और अत्यधिक भुजाओंसे घिरा हुआ रावण ऐसा जान पड़ता था मानो अगणित कमलोंके
महसे घिरा हो ॥२६।। हाथीकी सूडके समान आकारसे युक्त तथा बाजूबन्दसे सुशोभित भुजाओं और शिरीसे भरा आकाश शस्त्र तथा रत्नोंकी किरणोंसे पिञ्जर वर्ण हो गया ।।२७।
१. शिरसाम् ।
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