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चतुःसप्ततितमं पर्व
उपजातिवृत्तम् कर्मण्युपेतेऽभ्युदयं पुराणे संप्रेरके सत्यतिदारुणाङ्गे । तस्योचितं प्राप्तफलं मनुष्याः क्रियापवर्गप्रकृतं भजन्ते ॥११५॥ उदारसंरम्भवशं प्रपन्नाः प्रारब्धकार्यार्थनियुक्तचित्ताः ।
नरा न तीव्र गणयन्ति शस्त्रं न पावकं नैव रविं न वायुम् ॥११६॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे रावण-लक्ष्मणयुद्धवर्णनाभिधानं
नाम चतुःसप्ततितमं पर्व ॥७४॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि जब प्रेरणा देनेवाले पूर्वोपार्जित पुण्य-पापकर्म उदयको प्राप्त होते हैं तब मनुष्य उन्हीं के अनुरूप कार्यको सिद्ध अथवा असिद्ध करनेवाले फलको प्राप्त होते हैं ॥११५॥ जो अत्यधिक क्रोधकी अधीनताको प्राप्त हैं और जिन्होंने अपना चित्त प्रारम्भ किये हुए कार्यकी सिद्धिमें लगा दिया है ऐसे मनुष्य न तोत्र शस्त्रको गिनते हैं, न अग्निको गिनते हैं, न सूर्यको गिनते हैं और न वायुको ही गिनते हैं ।।११६।।
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें रावण और
लक्ष्मणके युद्धका वर्णन करनेवाला चौहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुअा ॥७४||
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