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चतुःसप्ततितमं पर्व
अथ लक्ष्मणवीरेण भाषितः परमौजसा । प्रस्थितः क्व मया दृष्टो भवानद्यापि भो खग ॥८७॥ तिष्ठ तिष्ठ रणं यच्छ क्षुद्र तस्कर पापक । परस्त्रीदीपशलभ पुरुषाधम दुष्क्रिय ॥८८॥ अद्य प्रकरणं तत्ते करोमि कृतसाहसम् । कुर्यान्नवापि यत्क्रुद्धः कृतान्तोऽपि कुमानसः ॥८॥ अयं राघवदेवोऽद्य समस्तवसुधापतिः । चौरस्य ते वधं कर्तुं समादिशति धर्मधीः ॥ ६० ॥ अवोचलक्ष्मण कोपी विंशत्यर्धाननस्ततः । मूढ ते किं न विज्ञातं लोके प्रख्यातमीदृशम् ॥ ६१॥ यच्चारु भूतले सारं किञ्चिद्रव्यं सुखावहम् । अहमि तदहं राजा तवापि मयि शोभते ॥ ६२॥ न गजस्योचिता घण्टा सारमेयस्य शोभते । तदत्र का कथाऽद्यापि योग्यद्रव्यसमागमे ॥ ६३ ॥ त्वया मानुषमात्रेण यत्किंचनविलापिना । विधातुमसमानेन युद्धं दीनेन लज्ज्यते ॥ १४ ॥ विप्रलब्धस्तथाप्येतैर्युद्धं चेत्कत्तुमर्हसि । प्रव्यक्तं काललब्धोऽसि निर्वेदीवासि जीविते ॥१५॥ ततो लक्ष्मीधरोऽवोचद्वेश त्वं यादृशः प्रभुः । भद्य ते गर्जितं पाप हरामि किमिहोदितैः ||१६|| इत्युक्तो रावणो वाणैः सुवाणैः कैकेयीसुतम् । प्रावृषेण्यघनाकारो गिरिकल्पं निरुद्धवान् ||१७|| वज्रदण्डैः शरैस्तस्य विशल्यारमणः शरान् । अदृष्टचापसम्बन्धैरन्तराले न्यवारयत् ॥ १८ ॥ भिर्विपाटितैः क्षोदं गतैश्च विशिखोत्करैः । द्यौश्च भूमिश्च सञ्जाता विवेकपरिवर्जिता ॥ ६६ ॥ कैकयीसूनुना व्यस्त्रः केकसीनन्दनः कृतः । माहेन्द्रमस्त्रमुत्सृष्टं चकार गगनासनम् ॥१००॥
वाणोंसे मयको विह्वल देख तेजसे यमकी तुलना करनेवाला रावण कुपित हो दौड़ा ||८६॥ तब परम प्रतापी वीर लक्ष्मणने उससे कहा कि ओ विद्याधर ! कहाँ जा रहे हो ? मैं आज तुम्हें देख पाया हूँ ||७|| रे क्षुद्र ! चोर ! पापी ! परस्त्रीरूपी दीपकपर मर मिटनेवाले शलभ ! नीच पुरुष ! दुश्चेष्ट ! खड़ा रह खड़ा रह मुझसे युद्धकर ||८|| आज साहसपूर्वक तेरी वह दशा करता हूँ जिसे कुपित दुष्ट यम भी नहीं करेगा ? ॥८६॥ यह भी राघव देव समस्त पृथिवीके अधिपति हैं । धर्ममय बुद्धिको धारण करनेवाले इन्होंने तुझ चोरका वध करनेके लिए मुझे आज्ञा दी है ॥६०॥
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तदनन्तर क्रोध से भरे रावणने लक्ष्मणसे कहा कि अरे मूर्ख ! क्या तुझे यह ऐसी लोकप्रसिद्ध बात विदित नहीं है कि पृथिवीतलपर जो कुछ सुन्दर श्रेष्ठ और सुखदायक वस्तु है मैं ही उसके योग्य हूँ । यतश्च मैं राजा हूँ अतएव वह मुझमें ही शोभा पाती हैं अन्यत्र नहीं ॥६१-६२॥ हाथी के योग्य घण्टा कुत्ता के लिए शोभा नहीं देता। इसलिए योग्य द्रव्यका योग्य द्रव्यके साथ समागम हुआ इसकी आज भी क्या चर्चा करनी है ||१३|| तू एक साधारण मनुष्य है, चाहे जो बकनेवाला है, मेरी समानता नहीं रखता तथा अत्यन्त दीन है अतः तेरे साथ युद्ध करनेमें यद्यपि मुझे लज्जा आती है || १४ || तथापि इन सबके द्वारा बहकाया जाकर यदि युद्ध करना चाहता है तो स्पष्ट है कि तेरे मरनेका काल आ पहुँचा है अथवा तू अपने जीवनसे मानो उदास हो चुका है ||१५|| तब लक्ष्मणने कहा कि तू जैसा प्रभु है मैं जानता हूँ। अरे पापी ! इस विषय में अधिक कहने से क्या ? मैं तेरो सब गर्जना अभी हरता हूँ ||१६|| इतना कहने पर रावणने सनसनाते हुए वाणोंसे लक्ष्मणको इस प्रकार रोका जिस प्रकार कि वर्षाऋतुका मेघ किसी पर्वतको आ रोकता है ||१७|| इधर से जिनका वज्रमयी दण्ड था तथा शीघ्रताके कारण जिन्होंने मानो धनुषका सम्बन्ध देखा ही नहीं था ऐसे वाणोंसे लक्ष्मणने उसके वाणोंको बीचमें ही नष्ट कर दिया ||८|| उस समय टूटे-फूटे और चूर-चूर हुए वाणोंके समूहसे आकाश और भूमि भेदरहित हो गई थी ||६||
तदनन्तर जब लक्ष्मणने रावणको शस्त्ररहित कर दिया तब उसने आकाशको व्याप्त करने
१. लज्जते म० । २. स वाणैः म० । सुवाणैः सुशब्दैः इत्यर्थः ।
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