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चतुःसप्ततितमं पर्व
धर्मो रक्षति मर्माणि धर्मो जयति दुर्जयम् । धर्मः सञ्जायते पक्षः धर्मः पश्यति सर्वतः ॥ ५६ ॥ रथैरश्वयुतैर्दिव्यै रिभैर्भूधरसन्निभैः । अश्वैः पवनरंहोभिर्भृत्यैरसुरभासुरैः ॥५७॥ न शक्यो रक्षितुं 'पूर्वसुकृतेनोज्झितो नरः । एको विजयते शत्रुं पुण्येन परिपालितः ||५८ || एवं संयति संवृत्ते प्रवीरभटसङ्कटे । योधा व्यवहिता योधैरवकाशं न लेभिरे ॥ ५६ ॥ उत्पतद्भिः पतद्भिश्व भटैरायुधभासुरैः । उत्पातघनसंछन्नमिव जातं नभस्तलम् ॥ ६०॥ मारीचचन्द्र निकरवज्राक्षशुकसारणैः । अन्यैश्च राक्षसाधी शैर्बलमुत्सारितं द्विषाम् ||६१ ॥ श्रीशैलेन्दुमरीचिभ्यां नीलेन कुमुदेन च । तथा भूतस्वनाद्यैश्च विध्वस्तं रक्षसां बलम् || ६२ ॥ कुन्दः कुम्भो निकुम्भश्च विक्रमः क्रमणस्तथा । श्रीजम्बुमालिवीरश्च सूर्यारो मकरध्वजः ।। ६३ ।। तथाऽशनिरथाद्याश्च राचसीया महानृपाः । उत्थिता वेगिनो योधास्तेषां साधारणोद्यताः ॥६४॥ भूधराचलसम्मेदविकाल कुटिलाङ्गदाः । सुषेणकालचक्रोर्मितरङ्गाद्याः कपिध्वजाः ॥ ६५ ॥ तेषामभिमुखीभूता निजसाधारणोद्यताः । नालध्यत भटः कश्चित्तदा प्रतिभटोज्झितः ॥ ६६ ॥ अञ्जनायाः सुतस्तस्मिन्नारुह्य द्विपयोजितम् । रथं क्रीडति पद्माक्ष्ये सरसीव महागजः ॥ ६७ ॥ तेन श्रेणिक शूरेण रक्षसां सुमहद्वलम् । कृतमुन्मत्तकीभूतं यथारुचितकारिणा ॥ ६८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे क्रोधसङ्गदूषितलोचनः । प्राप्तो मयमहादैत्यः प्रजहार महत्सुतम् ॥ ६३ ॥ उद्धृत्य विशिखं सोऽपि पुण्डरीकनिभेक्षणः । शरवृष्टिभिरुग्राभिरकरोद्विरथं मयम् ॥७०॥
पाप दोनोंका मिश्रित रूपसे संचय किया था वे युद्धभूमि में दूसरोंको जीतते थे और मृत्यु निकट आनेपर दूसरोंके द्वारा जीते भी जाते थे || ५५॥ इससे जान पड़ता है कि धर्म ही मर्मस्थानोंकी रक्षा करता है, धर्म ही दुर्जेय शत्रुको जीतता है, धर्म ही सहायक होता है और धर्म ही सब ओरसे देख-रेख रखता है || ५६ || जो मनुष्य पूर्वभवके पुण्यसे रहित है। उसकी घोड़ों से जुते हुए दिव्य रथ, पर्वत समान हाथी, पवनके समान वेगशाली घोड़े और असुरोंके समान देदीप्यमान पैदल सैनिक भी रक्षा नहीं कर सकते और जो पूर्वपुण्यसे रक्षित है वह अकेला ही शत्रुको जीत लेता है ||५७-५८ ॥ इस प्रकार प्रचण्ड बलशाली योद्धाओंसे परिपूर्ण युद्धके होनेपर योद्धा, दूसरे योद्धाओंसे इतने पिछल जाते थे कि उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता था ॥ ५६ ॥ शस्त्रां से चमकते हुए कितने ही योद्धा ऊपरको उछल रहे थे और कितने ही मर मर कर नीचे गिर रहे थे उनसे आकाश ऐसा हो गया था मानो उत्पात के मेघोंसे ही घिर गया हो ||६० ||
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अथानन्तर मारीच, चन्द्रनिकर, वज्राक्ष, शुक, सारण तथा अन्य राक्षस राजाओंने शत्रुओं की सेनाको पीछे हटा दिया || ६१ ॥ तब हनूमान् चन्द्ररश्मि, नील, कुमुद तथा भूतस्वन आदि बानरवंशीय राजाओंने राक्षसों की सेनाको नष्ट कर दिया ॥ ६२ ॥ तत्पश्चात् कुन्द, कुम्भ, निकुम्भ, विक्रम, श्रीजम्बूमाली, सूर्यार, मकरध्वज तथा वज्ररथ आदि राक्षस पक्ष के बड़े-बड़े राजा तथा वेगशाली योद्धा उन्हें सहायता देनेके लिए खड़े हुए ॥ ६३-६४॥ तदनन्तर भूधर, अचल, संमेद, विकाल, कुटिल, अंगद, सुषेण, कालचक्र और ऊर्मितरङ्ग आदि बानर पक्षीय योद्धा, अपने पक्ष के लोगोंको आलम्बन देनेके लिए उद्यत हो उनके सामने आयें । उस समय ऐसा कोई योद्धा नहीं दिखाई देता था जो किसी प्रतिद्वन्दीसे रहित हो || ६५-६६ ॥ जिस प्रकार कमलों से सहित सरोवर में महागज क्रीड़ा करता है उसी प्रकार अंजनाका पुत्र हनूमान् हाथियोंसे जुते रथपर सवार हो उस युद्धभूमि में क्रीड़ा कर रहा था || ६ || गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इच्छानुसार काम करनेवाले उस एक शूरवीरने राक्षसोंकी बड़ी भारी सेनाको उन्मत्त जैसा कर दिया - उसका होश गायब कर दिया || ६८ || इसी बीचमें क्रोधके कारण जिसके नेत्र दूषित हो रहे थे ऐसे महादैत्य मयने आकर हनूमान्पर प्रहार किया || ६६ || सो पुण्डरीकके समान नेत्रोंको धारण
१. पूर्वं सुकृतेनो म० । ८-३
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