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पद्मपुराणे
स रथान्तरमारुह्य पुनर्योधुं समुद्यतः । श्रीशैलेन पुनस्तस्य सायकैर्दलितो रथः ॥७॥ मयं विह्वलमालोक्य विद्यया बहुरूपया। रथं दशमुख्ः सृष्टं प्रहिणोतिस्म सत्वरम् ॥७२॥ स तं रथं समारुह्य नाम्ना प्रज्वलितोत्तमम् । सम्बाध्य विरथं चक्रे हनूमन्तं महाद्युतिः ॥७३॥ धावमानां समालोक्य वानरध्वजिनी भटाः । जगुः प्राप्तमिदं नाम कृतात्यन्तविपर्ययम् ॥७॥ वातिं व्यस्त्र कृतं दृष्ट्वा वैदेहः समधावत । कृतो विस्यन्दनः सोऽपि मयेन शरवर्षिगा ॥७५॥ ततः किष्किन्धराजोऽस्य कुपितोऽवस्थितः पुरः । निरस्त्रोऽसावपि होगी तेन दैत्येन लम्भितः ॥७६। ततो मयं पुरश्चक्रे सुसंरब्धो विभीषणः । तयोरभूत् परं युद्धमन्योन्यशरताडितम् ॥७७॥ विभिन्नकवचं दृष्ट्वा कैकसीनन्दनं ततः । रक्ताशोकदुमच्छायं प्रसक्तरुधिरनुतिम् ॥७८ । निरीच्योन्मत्तभूतं च परित्रस्तं पराङ्मुखम् । कपिध्वजबलं शीणं रामो योढुं समुद्यतः ॥७॥ विद्याकेसरियुक्तं च रथमारुह्य सस्वरम् । मा भैषीरिति सस्वानो दधाव विहितस्मितः ॥५०॥ सतडित्प्रावृडम्भोदधनसङ्कट्टसन्निभम् । विवेश परसैन्यं स बालार्कप्रतिमद्युतिः ।।८१॥ तस्मिन् परबलध्वंसं नरेन्द्रे कर्तुं मुद्यते । वातिवैदेहसुग्रीवकैकसेया धृति ययुः ॥१२॥ शाखामृगबलं भूयः कर्तुं युद्धं समुद्यतम् । रामतो बलमासाद्य त्यक्तनिःशेषसाध्वसम् ॥३॥ प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते सुराणां रोमहर्षणे । लोकोऽन्य इव सञ्जातस्तदालोकविवर्जितः ॥८॥ ततः पद्मो मयं बाणैर्लग्नश्छादयितुं भृशम् । स्वल्पेनैव प्रयासेन वज्रीव चमरासुरम् ॥८५॥ मयं विह्वलितं दृष्ट्वा नितान्तं रामसायकैः । दधाव रावणः क्रुद्धः कृतान्त इव तेजसा ॥८६॥
करनेवाले हनूमान ने भी वाण निकालकर तीक्ष्ण वाणवर्षासे मयको रथरहित कर दिया ||७|| मयको विह्वल देख रावणने शीघ्र ही बहुरूपिणी विद्याके द्वारा निर्मित रथ उसके पास भेजा ॥७१।। महाकान्तिके धारक मयने प्रज्वलितोत्तम नामक उस रथपर आरूढ़ हो हनूमानके साथ युद्ध कर उसे रथरहित कर दिया ॥७२-७३॥ तब वानरोंकी सेना भाग खड़ी हुई। उसे भागती देख राक्षण पक्षके सुभट कहने लगे कि इसने जैसा किया ठीक उसके विपरीत फल प्राप्त कर लिया अर्थात् करनीका फल इसे प्राप्त हो गया ॥७४॥ तदनन्तर हनूमानको शस्त्ररहित देख भामण्डल दौड़ा सो वाणवर्षा करनेवाले मयने उसे भी रथरहित कर दिया ॥७५।। तदनन्तर किष्किन्धनगर का राजा सुग्रीव कुपित हो मयके सामने खड़ा हुआ सो मयने उसे भी शस्त्ररहित कर पृथिवीपर पहुँचा दिया ।।७६।। तत्पश्चात् क्रोधसे भरे विभीषणने मयको आगे किया सो दोनों में परस्पर एक दूसरेके वाणोंको काटनेवाला महायुद्ध हुआ ।।७७॥ युद्ध करते-करते विभीषणका कवच टूट गया जिससे रुधिरकी धारा बहने लगी और वह फूले हुए अशोक वृक्षके समान लाल दिखने
गा।।७८।सो विभीषणको ऐसा देख तथा वानराकी सेनाको विह्वल, भयभीत पराकुमुख और विखरी हुई देखकर राम युद्धके लिए उद्यत हुए ||७६॥ वे विद्यामयो सिंहोंसे युक्त रथपर सवार हो 'डरो मत' यह शब्द करते तथा मुसकराते हुए शीघ्र ही दौड़े ।।८०॥ रावणको सेना बिजली सहित वर्षाकालीन मेघोंकी सघन घटाके समान थी और राम प्रातःकालके सूर्यके समान कान्तिके धारक थे सो इन्होंने रावणकी सेनामें प्रवेश किया ॥१॥ जब राम, शत्रु सेनाका संहार करनेके लिए उद्यत हुए तब हनूमान् भामण्डल, सुग्रीव और विभीषण भी धैर्यको प्राप्त हुए ।।२।। रामसे बल पाकर जिसका समस्त भय छूट गया था ऐसी वानरोंकी सेना पुनः युद्ध करनेके लिए प्रवृत्त हुई॥३॥ उस समय देवोंके रोमाञ्च उत्पन्न करनेवाले शस्त्रोंकी वर्षा होनेपर लोकमें अन्धकार छा गया और वह ऐसा लगने लगा मानो दूसरा ही लोक हो ॥४॥ तदनन्तर राम, थोड़े ही प्रयाससे मयको वाणोंसे आच्छादित करनेके लिए उस तरह अत्यधिक तल्लीन हो गये जिस तरह कि चमरेन्द्रको वाणाच्छादित करनेके लिए इन्द्र तल्लीन हुआ था ॥८॥ तदनन्तर रामके
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