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पद्मपुराणे
स्थूरीपृष्ठसमारूढाः खगाष्टिंप्रासपाणयः । खेटकाच्छादितोरस्काः संख्यचमा विविशुभंटाः ॥४२॥ आस्तृणंत्यभिधान्ति स्पर्धन्ते निर्जयन्ति च । जीयन्ते नन्ति हन्यन्ते कुर्वन्ति भटगर्जितम् ॥४३॥ तुरगाः क्वचिदुद्दीप्ता भ्रमन्त्याकुलमूर्तयः । कचमुष्टिगदायुद्धं प्रवृत्तं गहनं क्वचित् ॥४४॥ केचित्खनक्षतोरस्काः केचिद्विशिखताडिताः । केचित्कुंताहताः शत्रु ताडयन्ति पुनस्तथा ॥४५।। सततं लालितः केचिदभीष्टार्थानुसेवनः । इन्द्रियः परिमुच्यन्ते कुमित्ररिव भूमिगाः ॥४६॥ गलदन्त्रचयाः केचिदनावृत्योरुवेदनाम् । पतन्ति शत्रुणा साधं दन्तनिष्पीडिताधराः ॥४७॥ प्रासादशिखरे देवकुमारप्रतिमौजसः । प्रचिक्रीडमहाभोगा ये कान्तातनुलालिताः ॥१८॥ ते चक्रकनकच्छिन्नाः संग्रामक्षितिशायिनः । भच्यन्ते विकृताकारा गृध्रगोमायुपंक्तिभिः॥४॥ नखक्षतकृताकूता कामिनीव शिवा भटम् । वहन्ती सङ्गमप्रीतिं प्रसुप्तमुपसति ॥५०॥ स्फुरणेन पुनात्वा जीवतीति ससभ्रमा। निवर्तते यथा भीता डाकिनी मन्त्रवादिनः॥५१॥ शूरं विज्ञाय जीवन्तं बिभ्यती विहगी शनैः । दुष्टनारीव साशङ्का चलनेत्रापसर्पति ॥५२॥ शुभाशुभा च जन्तूनां प्रकृतिस्तत्र लचयते । प्रत्यक्षादविशिष्टव भंगेन विजयेन च ॥५३॥ केचित् सुकृतसामर्थ्याद्विजयन्ते बहून्यपि । कृतपापाः प्रपद्यन्ते बहवोऽपि पराजयम् ॥५४॥
मिश्रितं मत्सरेणापि तयोयरर्जितं पुरा । ते जयन्ति विजीयन्ते तत्र प्रलयमागते ॥५५॥ जो घोड़ोंके पीठपर सवार थे, हाथों में तलवार बरछी तथा भाले लिये हुए थे और कवचसे जिनके वक्षःस्थल आच्छादित थे ऐसे योद्धाओंने रणभूमिमें प्रवेश किया ॥४२॥ वे योद्धा परस्पर एक दूसरेको आच्छादित कर लेते थे, एक दूसरेके सामने दौड़ते थे, एक दूसरेसे स्पर्धा करते थे, एक दूसरेको जीतते थे, उनसे जीते जाते थे, उन्हें मारते थे, उनसे मारे जाते थे और वीरगर्जना करते थे ॥४३॥ कहीं व्यग्रमुद्राके धारक तेजस्वी घोड़े घूम रहे थे तो कहीं केश मुट्ठी और गदाका भयंकर युद्ध हो रहा था ॥४४॥ कितने ही वीरोंके वक्षःस्थल में तलवारसे घाव हो गये थे, कोई बाणोंसे धायल हो गये थे और कोई भालोंकी चोट खाये हुए थे तथा बदला चुकाने के लिए वे वीर भी शत्रुओंको उसी प्रकार ताड़ित कर रहे थे ।।४।। अभीष्ट पदार्थोंके सेवनसे. जिन्हें निरन्तर लालित किया था ऐसी इन्द्रियाँ कितने ही सुभटोंको इस प्रकार छोड़ रही थीं, जिस प्रकार कि खोटे मित्र काम निकलनेपर छोड़ देते हैं ॥४६॥ जिनकी आँतोंका समूह बाहर निकल आया था ऐसे कितने ही सुभट अपनी बहुत भारी वेदनाको प्रकट नहीं कर रहे थे किन्तु उसे छिपाकर दाँतोंसे ओठ काटते हुए शवपर प्रहार करते थे और उसीके साथ नीचे गिरते थे ॥४ देवकुमारोंके समान तेजस्वी, महाभोगोंके भोगनेवाले और स्त्रियोंके शरीरसे लड़ाये हुए जो सुभट पहले महलोंके शिखरोंपर क्रीड़ा करते थे वे ही उस समय चक्र तथा कनक आदि शस्त्रोंसे खण्डित हो रणभूमिमें सो रहे थे, उनके शरीर विकृत हो गये थे तथा गीध और शियारोंके समूह उन्हें खा रहे थे ।।४८-४६|जिस प्रकार समागमकी इच्छा रखनेवाली स्त्री, नख क्षत्त देनेके अभिप्रायसे सोते हुए पतिके पास पहुँचती है उसी प्रकार नाखूनोंसे लोंचका अभिप्राय रखनेवाली शृगाली रणभूमिमें पड़े हुए किसी सुभटके पास पहुँच रही थी ॥५०॥ पास पहुँचनेपर उसके हलनचलनको देख जब शृगालीको यह जान पड़ा कि यह तो जीवित है तब वह हड़बड़ाती हुई डरकर इस प्रकार भागो जिस प्रकार कि मन्त्रवादीके पाससे डाकिनी भागती है ।।५१॥ कोई एक यक्षिणी किसी शूरवीरको जीवित जानकर भयभीत हो धीरे-धीरे इस प्रकार भागी जिस प्रकार कि कोई व्यभिचारिणी पतिको जीवित जान शंकासे युक्त हो नेत्र चलाती हुई भाग जाती. है ॥५२॥ युद्धभूमिमें किसीकी पराजय होती थी और किसीकी हार। इससे जीवोंके शुभ अशुभ कर्मोका उदय वहाँ समान रूपसे प्रत्यक्ष ही दिखाई दे रहा था ॥५३।। कितने ही सुभट पुण्य कर्मके सामर्थ्यसे अनेक शत्रुओंपर विजय प्राप्त करते थे और पूर्वभवमें पाप करनेवाले बहुतसे योद्धा पराजयको प्राप्त हो रहे थे ॥५४|| जिन्होंने पूर्वपर्यायमें मत्सर भावसे पुण्य और
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