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पद्मपुराणे दृष्ट्वा दक्षिणतोऽत्यन्तभीमनिःस्वानकारिणः । मल्लुका गगने गृध्रा भ्रमन्ति छमभास्कराः ॥१४॥ जानन्तोऽपि निमित्तानि कथयन्ति महाक्षयम् । शौर्यमानोत्कटाः क्रुद्धा ययुरेव महानराः ॥१५॥ पमाभोऽपि स्वसैन्यस्थः पर्यपृच्छत् सविस्मयः। भो भो मध्येयमेतस्या नगर्यास्तेजसा ज्वलन् ॥१६॥ जाम्बूनदमयैः कूटः सुविशालैरलङ्कृतः । सतडिन्मेघसंघातच्छायः किनामको गिरिः ॥१७॥ पृच्छतेऽस्मै सुषेणाचा सम्मोहं समुपागताः । न शेकुः सहसा वक्तुमपृच्छच्च स तान्मुहुः ॥१८॥ ब्रूत किं नामधेयोऽयं गिरिरत्र निरीच्यते । अगदञ्जाम्बवाद्यास्तमथो वेपथुमन्धराः ॥१६॥ दश्यते 'पद्मनाभायं रथोऽयं बहुरूपया। विद्यया कल्पितोऽस्माकं मृत्युसंज्वरकोविदः ॥२०॥ किष्किन्धराजपुत्रेण योऽसौ गत्वाभिरोषतः । रावणोऽवस्थितः सोऽत्र महामायामयोदयः ॥२१॥ श्रुत्वा तद्वचनं तेषां लक्ष्मणः सारथिं जगौ। रथं समानय क्षिप्रमित्युक्तः स तथाऽकरोत् ॥२२॥ ततः क्षुब्धार्णवस्वाना भीमा भेयः समाहताः । शङ्खकोटिस्वनोन्मिश्राः शेषवादित्रसङ्गताः ॥२३॥ श्रुत्वा तं निनदं हृष्टा भटा विकटचेष्टिताः । सन्नद्धा बद्भुतूणीरा लचमणस्यान्तिके स्थिताः ॥२४॥ मा भैषीर्दयिते तिष्ठ निवर्तस्व शुचं त्यज । अहं लकेश्वरं जित्वा प्रत्येम्यद्य तवान्तिकम् ॥२५।। इति गर्वोत्कटा वीरा समाश्वास्य वराङ्गनाः । अन्तःपुरात सुसमद्धा विनिर्जग्मुर्यथायथम् ॥२६॥ परस्परप्रतिस्पर्धावेगचोदितवाहनाः । रथादिभिययुर्योधाः शस्त्रावेक्षणचञ्चलाः ॥२७॥
रथं महेभसंयुक्तं गम्भीरोदारनिस्वनम् । भूतस्वनः समारूढो विरेजे खेचराधिपः ॥२८॥ भामण्डलको देख कुपित होता हुआ उनके सन्मुख गया। रावणकी दक्षिण दिशामें भालू अत्यन्त भयङ्कर शब्द कर रहे थे और आकाशमें सूर्यको आच्छादित करते हुए गीध मँडरा रहे थे ॥१२-- १४॥ शूरवीरताके अहंकारसे भरे महासुभट यद्यपि यह जानते थे कि ये अपशकुन मरणको सूचित कर रहे हैं तथापि वे कुपित हो आगे बढ़े जाते थे ॥१५॥
___ अपनी सेनाके मध्यमें स्थित रामने भी आश्चर्य चकित हो सैनिकोंसे पूछा कि हे भद्र. पुरुषो ! इस नगरीके बीच में तेजसे देदीप्यमान, सुवर्णमयी बड़े-बड़े शिखरोंसे अलंकृत, तथा बिजलीसे सहित मेघ समूहके समान कान्तिको धारण करनेवाला यह कौन सा पर्वत है ? ॥१६१७॥ सुपेण आदि विद्याधर स्वयं भ्रान्तिमें पड़ गये इसलिए वे पूछनेवाले रामके लिए सहसा उत्तर देनेके लिए समर्थ नहीं हो सके । फिर भी राम उनसे बार बार पूछे जा रहे थे कि कहो यह यहाँ कौन सा पर्वत दिखाई दे रहा है? तदनन्तर भयसे काँपते हुए जाम्बव आदिने धीमे स्वरमें कहा कि हे राम ! यह बहुरूपिणी विद्याके द्वारा निर्मित वह रथ है जो हम लोगोंको कालज्वर उत्पन्न करने में निपुण है ॥१८-२०।। सुग्रीवके पुत्र अगदने जाकर जिसे कुपित किया था ऐसा वह महामायामय अभ्युदयको धारण करनेवाला रावण इस पर सवार है ।।२१।। जाम्बव आदिके उक्त वचन सुन लक्ष्मणने सारथिसे कहा कि शीघ्र ही रथ लाओ। सुनते ही सारथिने आज्ञा पालन किया अर्थात् रथ लाकर उपस्थित कर दिया ॥२२।। तदनन्तर जिनके शब्द क्षुभित समुद्रके शब्दके समान थे, जिनके शब्दोंके साथ करोड़ों शङ्खोंके शब्द मिल रहे थे ऐसी भयंकर भेरियाँ बजाई गई ॥२३॥ उस शब्दको सुनकर विकट चेष्टाओंके धारक योद्धा, कवच पहिन तथा तरकस बाँध लक्ष्मणके पास आ खड़े हुए ॥२४।। 'हे प्रिये ! डर मत, यहीं ठहर, लौट जा, शोक तज, मैं लकेश्वरको जीतकर आज ही तेरे समीप वापिस आ जाऊँगा' इस प्रकार गर्वीले वीर, अपनी उत्तम स्त्रियोंको सान्त्वना दे कवच आदिसे तैयार हो यथायोग्य रीतिसे बाहर निकले ॥२५-२६॥ जो परस्परकी प्रतिस्पर्धा वश वेगसे अपने वाहनोंको प्रेरित कर रहे थे, तथा जो शस्त्रोंकी ओर देख देख कर चञ्चल हो रहे थे ऐसे योधा रथ आदि वाहनोंपर आरूढ हो चले ॥२७॥ महागज
१. पद्मनागोऽयं म०। २. मृत्युः स ज्वरकोविदः म०। . Jain Education International
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