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पद्मपुराणे
विद्याविनिर्मितैर्दिव्यै रथैर्हतबहप्रभः । रेजुरग्निकुमाराभा भासयन्तो दशो दिश ।।१७२।। केचिद्दीप्तास्त्रसम्पूर्ण हिमवत्संनिभैरिभैः । ककुभश्छादयन्ति स्म सविद्युद्भिरिवांबुदैः ॥१७३॥ केचिद्वरतुरंगौघैर्दशार्धायुधसङ्कटाः । सहसा ज्योतिषां चक्रं चूर्णयन्तीव वेगिनः ॥१७४।। बृहद्विविधवादित्रैर्हयानां हेषितैस्तथा । गजानां गर्जितारावैः पदात्याकारितैरपि ।।१७५।। योधानां सिंहनादैश्च जयशब्दश्च वन्दिनाम् । गीतः कुशीलवानां न समुत्साहनकोविदः ॥१७६॥ इत्यन्यैश्च महानादैरेकीभूतैः समंततः । विननर्देव गगनं युगान्तजलदाकुलम् ।।१७७॥
रुचिरावृत्तम् जनेशिनोऽश्वरथपदातिसंकुलाः परस्परातिशयविभूतिभासुराः । बृहद्भुजाः कवचिततुंगवक्षसस्तडित्प्रभाः प्रववृतिरे जय षिणः ॥१७८।। पदातयोऽपि हि करवालचञ्चलाः पुरो ययुः प्रभुपरितोषणेषिणः । समैश्च वैर्विविधसमूहिभिः कृतं निरर्गलं गगनतलं दिशस्तथा ।।१७६।। इति स्थिते विगतभवाभिसञ्चिते शुभाशुभे त्रिभुवनभाजि कर्मणि ।
जनः करोत्यतिबहुधानुचेष्टितं न तं क्षमो रविरपि कत्तु मन्यथा ॥१०॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे उद्योगाभिधानं नाम त्रिसप्ततितमं पर्व ॥७३॥
लेकर सैकड़ों हजारों योद्धा युद्धस्थलमें आये सो वे विद्या निर्मित, अग्निके समान देदीप्यमान रथोंसे दशों दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अग्निकुमार देव ही हों ॥१७१-१७२॥ कितने ही सुभट देदीप्यमान शस्त्रोंसे युक्त तथा हिमालयके समान भारीभारी हाथियोंसे दिशाओंको इस प्रकार आच्छादित कर रहे थे मानो बिजली सहित मेघोंसे ही आच्छादित कर रहे हों ।।१७३॥ पाँचों प्रकारके शस्त्रोंसे युक्त कितने ही वेगशाली सुभट उत्तम घोड़ोंके समूहसे ऐसे जान पड़ते थे मानो नक्षत्र मण्डलको सहसा चूर-चूर हो कर रहे हों ॥१७४।। नाना प्रकारके बड़े-बड़े वादित्रों, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, हाथियोंकी गर्जना, पैदल सैनिकोंके बुलानेके शब्द, योद्धाओंकी सिंहनाद, चारणोंकी जयजय ध्वनि, नटोंके गीत तथा उत्साह बढ़ाने में निपुण अन्य प्रकारके महाशब्द सब ओरसे मिलकर एक हो रहे थे इसलिए उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश प्रलयकालीन मेघोंसे व्याप्त हो दुःखसे चिल्ला हो रहा हो ॥१७५-१७७॥ उस समय जो घोड़े रथ तथा पैदल सैनिकोंसे युक्त थे, जो परस्पर-एक दूसरेसे बढ़ी-चढ़ी विभूतिसे देदीप्यमान थे, जिनकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी थी तथा जिन्होंने अपने उन्नत वक्षःस्थलोंपर कवच धारण कर रक्खं थे ऐसे विजयके अभिलाषी अनेक राजा बिजलोके समान जान पड़ते थे ॥१७८।। जिनके हाथों में तलवारें लपलपा रही थीं तथा जो स्वामीके संतोषकी इच्छा कर रहे थे ऐसे पैदल सैनिक भी उन राजाओंके आगे-आगे जा रहे थे, विविध झुण्डोंको धारण करनेवाले उन सब सैनिकोंसे आकाश तथा दिशाएँ ठसाठस भर गई थीं ॥१७६॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार पिछले पूर्वभवों में संचित त्रिभुवन सम्बन्धी, शुभ-अशुभ कर्मके विद्यमान रहते हुए यह प्राणी यद्यपि नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता है तथापि सूर्य भी उसे अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं है ।।१८०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें युद्धके उद्योगका वर्णन
करने वाला तेहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥७३॥
१. युत म० ।
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