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चतुःसप्ततितमं पर्व विधिक्रमेण पूर्वेण सादरो मुदमुद्द्वहन् । आपृच्छत त्रिकूटेशो दयितामित्यपि प्रियाम् ॥१॥
को जानाति प्रिये भूगो दर्शनं चारुदर्शने । महाप्रतिभये युद्धे किं भवेन्न भवेदिति ॥२॥ उचुस्तं दयिता नाथ नन्द नन्द रिपूञ्जय । दचयामः सर्वथा भूयः संख्यतस्त्वां समागतम् ॥३॥ इत्युक्तो दयितानेत्रसहस्ररभिवीक्षितः । निर्जगाम बहिर्नाथो रत्तसां विकटप्रभा ॥४॥ अपश्यञ्च शरद्भानुभास्वरं बहुरूपया। विद्यया कृतनिर्माणमैन्द्रं नाम महारथम् ॥५॥ युक्तं दन्तिसहस्रण प्रावृषेण्यघनत्विषा । प्रभापरिकर मेरुं जिगीषन्तमिव स्थितम् ॥६॥ मत्तास्ते करिणो गण्डप्रगलहाननिर्भराः । सितपीतचतुर्दष्ट्राः शङ्खचामरशोभिनः ॥७॥ मुक्तादामसमाकीर्णा महाघण्टानिनादिताः । ऐरावतसमा नानाधातुरागविभूषिताः ।।८।। दुर्दान्ता विनयाधानभूमयो धनगर्जिताः। विरेजुः कालमेघौघसन्निभाश्चारुविभ्रमाः ।। मनोहराभकेयूर विदष्टभुजमस्तकः । तमसौ रथमारूढः शुनासोरसमद्युतिः ।।१०॥ विशालनयनस्तत्र स्थितो निरुपमाकृतिः । ओजसा सकलं लोकमग्रसिष्टेव रावणः ॥११॥ सहस्त्रैर्दशभिः स्वस्य सदृशैः खेचराधिपः । वियद्वल्लभनाथायैः स्वहितैः कृतमण्डलः ॥१२॥ महाबलः सुरच्छायैरभिप्रायानुवेदिभिः । क्रुद्धः सुग्रीववैदेही प्रत्यभीयाय रावणः ॥१३॥
अथानन्तर पूर्वकृत पुण्योदयसे हर्षको धारण करता हुआ रावण आदरके साथ अपनी प्रिय स्त्री मन्दोदरीसे इस प्रकार पूछता है कि हे प्रिये ! चारुदर्शने ! महा भयकारी युद्ध होना है अतः कौन जाने फिर तुम्हारा दर्शन हो या न हो ॥१-२॥ यह सुन सब स्त्रियोंने कहा कि हे नाथ । सदा वृद्धिको प्राप्त होओ, शत्रुओंको जीतो। तुम्हें हम सब शीघ्र ही युद्धसे लौटा हुआ देखेंगी ॥३॥ ऐसा कहकर जिसे हजारों स्त्रियाँ अपने नेत्रोंसे देख रही थीं तथा जिसकी प्रभा अत्यन्त विशाल थी ऐसा राक्षसोंका राजा रावण नगरके बाहर निकला ॥४॥ बाहर निकलते ही उसने बहुरूपिणी विद्याके द्वारा निर्मित तथा शरद् ऋतुके सूर्यके समान देदीप्यमान ऐन्द्र नामका महारथ देखा ॥५॥ वह महारथ वर्षाकालीन मेघोंके समान कान्तिवाले एक हजार हाथियोंसे जुता था, कान्तिके मण्डलसे सहित था, ऐसा जान पड़ता था मानो मेरु पर्वतको ही जीतना चाहता हो ॥६॥ उसमें जुते हुए हाथी मदोन्मत्त थे, इनके गण्डस्थलोंसे झरने भर रहे थे, उनके सफेद पीले रंगके चार चार खड़े दाँत थे, वे शङ्खों तथा चमरोंसे सुशोभित थे, मोतियों की मालाओंसे युक्त थे, उनके गले में बँधे बड़े बड़े घण्टा शब्द कर रहे थे, वे ऐरावत हाथीके समान थे, नाना धातुओंके रंगसे सुशोभित थे, उनका जीतना अशक्य था, वे विनयकी भूमि थे, मेघोंके समान गर्जनासे युक्त थे, कृष्ण मेघोंके समूहके समान थे तथा सुन्दर विभ्रमको धारण करते हुए शोभायमान थे ।।७-६।। जिसकी भुजाके अग्रभागपर मनोहर बाजूबन्द बंधा हुआ था तथा जिसकी कान्ति इन्द्रके समान थी, ऐसा रावण उस विद्या निर्मित रथपर आरूढ हुआ ॥१०॥ विशाल नयन तथा अनुपम आकृतिको धारण करनेवाला रावण उस रथपर आरूढ हुआ अपने तेजसे मानो समस्त लोकको ग्रस ही रहा था ॥११॥ जो अपने समान थे, अपना हित करनेवाले थे, महा बलवान थे, देवोंके समान कान्तिसे युक्त थे और अभिप्रायको जाननेवाले थे ऐसे गगनवल्लभनगरके स्वामीको आदि लेकर दश हजार विद्याधर राजाओंसे घिरा रावण सुग्रीव और
१. का जानाति म० । २. युद्धतः। ३. विकटप्रभुः म०। ४. घनवर्जिताः म०। ५. मग्रस्रष्टेव म०,ज०। ६. सुदच्छायै -(१) म०।
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