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षट्सप्ततितमं पर्व
उत्पन्नचक्ररस्नं तं वीक्ष्य लक्ष्मणसुन्दरम् । हृष्टा विद्याधराधीशाश्चक्रुरित्यभिनन्दनम् ॥ १॥ ऊचुश्चासीत् समादिष्टः पुरा भगवता तदा । नाथेनानन्तवीर्येण योऽष्टमः कृष्णतायुजाम् ॥२॥ जातो नारायणः सोऽयं चक्रपाणिर्महाद्युतिः । अत्युत्तमवपुः श्रीमान् न शक्यो बलवर्णने ॥३॥ अयं च बलदेवोऽसौ रथं यस्य वहन्त्यमी । उद्वृत्तकेसरसटाः सिंहा भास्करभासुराः ॥४॥ तो महादैत्यो येन वन्दिगृहं रणे । हलरत्नं करे यस्य भृशमेतद्विराजते ||५|| रामनाराणावेतौ तौ जातौ पुरुषोतमौ । पुण्यानुभावयोगेन परमप्रेमसङ्गतौ ॥ ६ ॥ लक्ष्मणस्य स्थितं पाणौ समालोक्य सुदर्शनम् । रक्षसामधिपश्चिन्तायोगमेवमुपागतः ॥७॥ वन्धेनानन्तवीर्येण दिव्यं यद्भाषितं तदा । ध्रुवं तदिदमायातं कर्मानिलसमीरितम् ॥ ८ ॥ यस्यातपत्रमालोक्य सन्त्रस्ताः खेचराधिपाः । भङ्गं प्रापुर्महासैन्याः पर्यस्तच्छत्रकेतनाः ॥३॥ आकूपारपयोवासा हिमवद्विन्ध्यसुस्तना । दासीवाज्ञाकरी यस्य त्रिखण्डवसुधाभवत् ॥१०॥ सोऽहं भूगोचरेणाजी जेतुमालोचितः कथम् । कष्टेयं वर्त्ततेऽवस्था पश्यताद्भुतमीदृशम् ॥११॥ धिगिमां नृपतेर्लचीं कुलटासमचेष्टिताम् । भक्तमेकपदे पापान् त्यजन्ती चिरसंस्तुतान् ॥ १२ ॥ किम्पाकफलवद्भोगा विपाकविरसा भृशम् । अनन्तदुःखसम्बन्धकारिणः साधुगर्हिताः ॥ १३ ॥
अथानन्तर जिन्हें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था ऐसे लक्ष्मण सुन्दरको देख कर विद्याधर राजाओंने हर्षित हो उनका इस प्रकार अभिनन्दन किया || १|| वे कहने लगे कि पहले भगवान् अनन्तवीर्य स्वामीने जिस आठवें नारायणका कथन किया था यह वही उत्पन्न हुआ है । चक्ररत्न इसके हाथ में आया है । यह महाकान्तिमान्, अत्युत्तम शरीरका धारक और श्रीमान् है तथा इसके बलका वर्णन करना अशक्य है || २-३ || और यह राम, आठवां बलभद्र है जिसके रथको खड़ी जटाओंको धारण करने वाले तथा सूर्यके समान देदीप्यमान सिंह खींचते हैं ||४|| जिसने रणमें मय नामक महादैत्यको बन्दीगृह में भेजा था तथा जिसके हाथमें यह हल रूपी रत्न अत्यन्त शोभा देता है ||५|| ये दोनों ही पुरुषोत्तम पुण्यके प्रभावसे बलभद्र और नारायण हुए हैं तथा परम प्रीति से युक्त हैं ||६||
तदनन्तर सुदर्शन चक्रको लक्ष्मणके हाथमें स्थित देख, राक्षसाधिपति रावण इस प्रकार की • चिन्ताको प्राप्त हुआ ||७|| वह विचार करने लगा कि उस समय वन्दनीय अनन्तवीर्य केबलीने जो दिव्यध्वनिमें कहा था जान पड़ता है कि वही यह कर्म रूपी वायुसे प्रेरित हो आया है ||८|| जिसका छत्र देख विद्याधर राजा भयभीत हो जाते थे, बड़ी बड़ी सेनाएं छत्र तथा पताकाए फेंक विनाशको प्राप्त हो जाती थीं तथा समुद्रका जल ही जिसका वस्त्र है और हिमालय तथा विन्ध्याचल जिसके स्तन हैं ऐशी तीन खण्डकी वसुधा दासीके समान जिसकी आज्ञाकारिणी थी ॥६- १०॥ वही मैं आज युद्ध में एक भूमिगोचरीके द्वारा पराजित होनेके लिए किस प्रकार देखा गया हूँ ? अहो ! यह बड़ी कष्टकर अवस्था है ? यह आश्चर्य भी देखो ॥ ११ ॥ कुलटाके समान चेष्टाको धारण करने वाली इस राजलक्ष्मीको धिक्कार हो यह पापी मनुष्यों का सेवन करनेके लिए चिर परिचित पुरुषों को एक साथ छोड़ देती है || १२ || ये पञ्चेन्द्रियों के भोग किंपाक फलके समान परिपाक कालमें अत्यन्त विरस हैं, अनन्त दुःखोंका संसर्ग कराने वाले हैं और साधुजनोंके द्वारा १. नारायण तोपेतानां नारायणाना मिति यावत् । कृष्णातायुजान् म० ज० । २. क्षणे म० ।
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