________________
त्रिसप्ततितमं पर्व
न दिव्यं रूपमेतस्या जायते मनसि स्थितम् । इमां ग्रामेयकाकारां नाथ कामयसे कथम् ॥७८।। यथासमीहिताकल्पकल्पनाऽतिविचक्षणा । भवामि कीदृशी ब्रहि जाये स्वच्चित्तहारिणी ॥७॥ पद्मालयारतिः सद्यः श्रीर्भवामि किमीश्वर । शकलोचनविश्रान्तभूमिः किं वा शची प्रभो ॥२०॥ मकरध्वजचित्तस्य बन्धनी रतिरेव वा । साक्षाद्भवामि किं देव भवदिच्छानुवर्तिनी ॥१॥ ततः किंचिदधोवक्त्रो रावणोतिवीक्षणः । सीडः स्वैरमूचेऽहं परस्त्रीहस्त्वयोदितः ॥२॥ किं मयोपचितं पश्य परमाकीर्तिगामिना । आस्मा लघूकृतो मूढः परस्त्रीसक्तचेतसा ॥३॥ विषयाऽऽमिषसक्तामन् पापभाजनचञ्चले' । धिगस्तु हृदयत्वं ते हृदयक्षुद्रचेष्टिता ॥५॥ विलक्ष इव चोत्सर्पिमुखेन्दुस्मितचन्द्रिकः । बुद्धाक्षिकुमुदः कान्तामेवमूचे दशाननः ॥८५॥ देवि वैक्रियरूपेण विनैव प्रकृतिस्थिता । अत्यन्तदयिता त्वं मे किमन्यत्रीभिरुत्तमे ॥८६॥ लब्धप्रसादया देव्या ततो मुदितचित्तया । भाषितं देव किं भानोर्दीपोद्योताय युज्यते ॥८॥ दशानन सुहृन्मध्ये यन्मयोक्तमिदं हितम् । अन्यानपि बुधान् पृच्छ वेनि नेत्यबला सती ॥८॥ जानपि नयं सर्व प्रमादं दैवयोगतः । जन्तुना हितकामेन बोधनीयो न कि प्रभुः ।।८६॥ आसीद्विष्णुरसौ साधुर्वि क्रियाविस्मृतात्मकः । सिद्धान्तगीतिकाभिः किं न प्रबोधमुपाहृतः ॥१०॥
छोड़कर काँचकी इच्छा करता है ।।७७॥ इससे आपका मनचाहा दिव्य रूप भी नहीं हो सकता अर्थात् यह विक्रियासे आपकी इच्छानुसार रूप नहीं परिवर्तित कर सकती फिर हे नाथ ! आप इस ग्रामीण स्त्रीको क्यों चाहते हैं ? ।।७८।। मैं आपकी इच्छानुसार रूपको धरनेमें अतिशय निपुण हूँ सो मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं कैसी हो जाऊँ। हे स्वामिन् ! क्या शीघ्र ही तुम्हारे चित्तको हरण करनेवालो एवं कमलरूपी घरमें प्रीति धारण करनेवाला लक्ष्मी बन जाऊँ ? अथवा हे प्रभो ! इन्द्रके नेत्रोंकी विश्रामभूमिस्वरूप इन्द्राणी हो जाऊँ ? ॥७६-८०॥ अथवा कामदेवके चित्तको रोकनेवाली साक्षात् रति ही बन जाऊँ ? अथवा हे देव ! आपकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाली क्या हो जाऊँ ? ॥१॥
तदनन्तर जिसका मुख नीचे की ओर था, जिसके नेत्र आधे खुले थे, तथा जो लज्जासे सहित था ऐसा रावण धीरे-धीरे बोला कि हे प्रिये ! तुमने मुझे परस्त्रीसेवी कहा सो ठीक है ॥२॥ देखो मैंने यह क्या किया ? परस्त्रीमें चित्तसे आसक्त होनेसे परम अकीर्तिको प्राप्त होते हुए मैंने इस मूर्ख आत्माको अत्यन्त लघु कर दिया है ।।२२-८३॥ जो विषयरूपी मांसमें आसक्त है, पापका भाजन है तथा चञ्चल है ऐसे इस हृदयको धिक्कार है । रे हृदय ! तेरी यह अत्यन्त नीच चेष्टा है ॥४॥ इतना कह जिसके मुखचन्द्रकी मुसकान रूपी चाँदनी ऊपर की ओर फैल रही थी, तथा जिसके नेत्ररूपी कुमुद विकसित हो रहे थे ऐसे दशाननने मन्दोदरीसे पुनः इस प्रकार कहा कि ॥८॥ हे देवि ! विक्रिया निर्मित रूपके विना स्वभावमें स्थित रहने पर भी तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो । हे उत्तमे ! मुझे अन्य स्त्रियोंसे क्या प्रयोजन है ? ॥८६॥ तदनन्तर स्वामीकी प्रसन्नता प्राप्त होनेसे जिसका चित्त खिल उठा था ऐसी मन्दोदरीने पुनः कहा कि हे देव ! सूर्य के लिए दीपकका प्रकाश दिखाना क्या उचित है ? अर्थात् आपसे मेरा कुछ निवेदन करना उसी तरह व्यर्थ है जिस तरह कि सूर्यको दीपक दिखाना ।।८७॥ हे दशानन ! मैंने मित्रोंके बीच जो यह हितकारी बात कही है सो उसे अन्य विद्वानोंसे भी पूछ लीजिये। मैं अबला होनेसे कुछ समझती नहीं हूँ ॥८॥ अथवा समस्त शास्त्रोंको जाननेवाला भी प्रभु यदि कदाचित् दैवयोगसे प्रमाद करता है तो क्या हित की इच्छा रखनेवाले प्राणीको उसे समझाना चाहिए ॥८६॥ जैसे कि विष्णुकुमार मुनि विक्रिया द्वारा आत्माको भूल गये थे सो क्या उन्हें सिद्धान्तके
१. चञ्चला म०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org