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पद्मपुराणे
अयि कान्ते किमर्थं त्वमेवं कातरतां गता । भीरुत्वाद्भीरुभावासि नाम हीदं सहार्थकम् ॥६५॥ सूर्य की तरहं नासौ न चाप्यशनिघोषकः । न चेतरो नरः कश्चित्किमर्थमिति भाषसे ॥ ६६ ॥ मृत्युदावानलः सोऽहं शत्रुपादपसंहतेः । समर्पयामि नो सीतां मा भैषीर्मन्दमानसे ॥६७॥ अनया कथया किं ते रक्षायां त्वं नियोजिता । शक्नोषि रक्षितुं नाथ मह्यमर्पय तां दुतम् ॥६८॥ ऊचे मन्दोदरीं सार्द्धं तथा रतिसुखं भवान् । वाञ्छत्यर्पय मे तामित्येवं च वदतेऽत्रपः ॥ ६६ ॥
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"इत्युक्त्वेवं क्रोधं वहती विपुलेक्षणा । कर्णोत्पलेन सौभाग्यम तिरेनमताडयत् ॥ ७० ॥ पुनरीय नियम्यान्तर्जगाद वद सुन्दर । किं माहात्म्यं त्वया तस्या दृष्टं तां यदीच्छसि ॥ ७१ ॥ न सा गुणवती ज्ञाता ललामा न च रूपतः । कलासु च न निष्णाता न च चित्तानुवर्तिनी ॥ ७२ ॥ ईयाsपि तया सार्क कान्त का ते रतौ मतिः । आत्मनो लाघवं शुद्धं भवस्वं नानुबुद्धयसे ॥ ७३ ॥ न कश्चित्स्वयमात्मानं शंसन्नाप्नोति गौरवम् । गुणा हि गुणतां यांति गुण्यमानाः पराननैः ॥७४॥ तदहं नो वदाम्येवं किं नु वेत्सि त्वमेव हि । वराक्या सीतया किं वा न श्रीरपि समेति मे ॥७५॥ विजहीहि विभोऽत्यन्तं सीतासङ्गेप्सितात्मकम् । मानुषङ्गानले तीने प्राप्तों निःपरिहारके ॥७६॥ मदवाकरो वान्छन् भूमिगोचरिणीमिमाम् । शिशुवैद्धर्यमुत्सृज्य काचमिच्छसि मन्दकः ॥७७॥
समान श्यामल वर्ण था ऐसा कमल लोचन रावण मन्दोदरी से बोला क्यों इस तरह अत्यन्त कातरताको प्राप्त हो रही है ? भीरु अर्थात् भीरु अर्थात् कातर भावको धारण कर रही है । अहो ! स्त्रीका भी ॥५५॥ मैं न अर्ककीर्ति हूँ, न वज्रघोष हूँ और न कोई दूसरा ही मनुष्य हूँ फिर इस तरह क्यों कह रही है ? ॥ ६६ ॥ शत्रुरूप वृक्षोंके समूहको भस्म करनेवाला वह मृत्युरूपी दावानल हूँ - इसलिए सीताको वापिस नहीं लौटाऊँगा । हे मन्दमते ! भय मत कर || ६ || अथवा इस चर्चा तुम्हें क्या प्रयोजन है ? तू तो सीताकी रक्षा करनेके लिए नियुक्त की गई है सो यदि रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है तो मुझे शीघ्र ही वापिस सौंप दे ||६८ || यह सुन मन्दोदरीने कहा कि आप उसके साथ रति-सुख चाहते हैं इसीलिए निर्लज्ज हो इस प्रकार कह रहे हैं कि उसे मुझे सौप दो || ६ || इतना कह ईर्ष्या सम्बन्धी क्रोधको धारण करनेवाली उस दीर्घलोचना मन्दोदरीने सौभाग्य की इच्छासे कर्णोत्पलके द्वारा रावणको ताड़ा || ७०|| पुनः मन ही मन को रोककर उसने कहा कि हे सुन्दर ! बताओ तो सही कि तुमने उसका क्या माहात्म्य देखा है ? जिससे उसे इस तरह चाहते हो || ७१ ॥ न तो वह गुणवती जान पड़ी है, न रूपमें सुन्दर न कलाओं में निपुण है और न आपके मनके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाली है ॥ ७२ ॥ फिर भी ऐसी सीता के साथ रमण करने की हे वल्लभ ! तुम्हारी कौन बुद्धि है । मेरी दृष्टिमें तो केवल अपनी लघुता ही प्रकट हो रही है जिसे आप समझ नहीं रहे हैं ॥ ७३ ॥ कोई भी पुरुष स्वयं अपने आपकी प्रशंसा करता हुआ गौरवको प्राप्त नहीं होता यथार्थ में जो गुण दूसरों के मुखों से प्रशंसित होते हैं वे ही गुणपनेको प्राप्त होते हैं ॥ ७४ ॥ इसीलिए मैं ऐसा कुछ नहीं कहती हूँ किन्तु आप स्वयं जानते हैं कि बेचारी सीताकी तो बात ही क्या, लक्ष्मी भी मेरे समान नहीं है ||७३ || इसलिए हे विभो ! सीता के साथ समागम की जो अत्यधिक लालसा है उसे छोड़िये, जिसका परिहार नहीं ऐसी अपवादरूपी तीव्र अग्नि में मत पड़िये ॥ ७३ ॥ आप मेरा अनादर कर इस भूमिगोचरीको चाह रहे हैं सो ऐसा जान पड़ता है मानो कोई मूर्ख बालक वैडूर्यमणिको
कि ||६४ || हे प्रिये ! तू स्त्री होने के कारण ही तू यह नाम सार्थक ही है
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१. 'भामिनी भीरुरङ्गना' इति धनंजयः । २. महार्थकम् म० । ३. शक्तोऽपि म० । ४. न + अथ इति पदच्छेदः । ५. इत्युक्ते - म० । ६. यदिच्छसि म० । ७. 'प्रप्तो' इति स्यात्, प्रोपसर्गपूर्वक पत्लु धातोर्लुङमध्यमैकवचने रूपम् । मायोगे डागमनिषेधः ।
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