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पद्मपुराणे
विहसन्नथ तामूचे भीतां भयविवर्जितः । उत्थाप्य भीतिमेवं किं गता त्वं कारणं विना ॥११७॥ मत्तोऽस्ति नाधिकः कश्चिद्वरारोहे नरोत्तमः । अलीका भीस्ता केयं स्त्रैणादालंन्यते त्वया ॥११॥ गदितं यत्वयाऽन्यस्य पक्षस्योद्भवसूचनम् । नारायण इति स्पष्टं तव देवि निरूप्यते ॥१६॥ नामनारायणाः सन्ति बलदेवाश्च भूरिशः । नामोपलब्धिमात्रेण कार्यसिद्धिः किमिष्यते ॥१२॥ तिर्यक कश्चिन्मनुष्यो वा कृतसिद्धाभिधानकः । वाङमावत: स कि सैद्धं सुखमाप्नोति कातरे ॥१२१॥ रथनूपुरधामेशो यथेंद्रोऽनिन्द्रतां मया । नीतस्तथेममीक्षस्व स्वमनारायणं कृतम् ॥१२२॥ इत्यूर्जितमुदाहृत्य प्रतिशत्रुः प्रतापवान् । स्वप्रभापटलच्छन्नशरीर: परमेश्वरः ॥१२३॥ क्रीडागृहमुपाविक्षन्मन्दोदर्या समन्वितः । श्रियेव सहितः शक्रो यथा कालाश्रितक्रियः ॥१२४॥ सायाह्नसमये तावत्सन्ध्यानिर्गतमण्डलः । सविता संहरत्यंशून्कषायानिव संयतः ॥१२५॥ सन्ध्यावलिविदष्टौष्टपुरुसंरंभलोहितः। निर्भयन्निव दिनं गतः क्वापि दिवाकरः ॥१२६॥ बद्धपद्माञ्जलिपुटा नलिन्योऽस्तं गतं रविम् । विरुतैश्चक्रवाकानां दीनमाकारयत्रिव ।।१२७॥ अनुमार्गेण च प्राप्ता ग्रहनक्षत्रवाहिनी। विक्षेपेणेव सरितुं मृगांकेन विसर्जिता ।।१२८॥ प्रदोषे तत्र संवृत्ते दीपिकारत्नदीपिते । प्रभाभिनगरी ला रेजे मेरोः शिखा यथा ॥१२६॥
__ अथानन्तर निर्भय रावण ने हँसते हुए उस भयभीत मन्दोदरीको उठाकर कहा कि तू इस तरह कारणके बिना ही भय को क्यों प्राप्त हो रही है ? ॥११७॥ हे सुन्दरि ! मुझसे बढ़कर कोई दूसरा उत्तम मनुष्य नहीं है। तू स्त्रीपनाके कारण इस किस मिथ्या भीरुताका आलम्बन ले रही है ? अर्थात् स्त्री होने के कारण व्यर्थ ही क्यों भयभीत ही रही है ? ॥११८॥ 'वे नारायण हैं। इस प्रकार दूसरे पक्षके अभ्युदयको सूचित करनेवाली जो बात तूने कही है सो हे देवि ! तुझे स्पष्ट बात बताऊँ कि नारायण और बलदेव इस नामको धारण करनेवाले पुरुष बहुतसे हैं क्या नामकी उपलब्धिमात्रसे कार्यकी सिद्धि हो जाती है ॥११६-१२०।। हे भीरु ! यदि किसी तिर्यञ्च या मनुष्यका सिद्ध नाम रख लिया जाय तो क्या नाममात्रसे वह सिद्ध सम्बन्धी सुखको प्राप्त हो सकता है ? ॥१२१॥ जिस प्रकार रथन पुर नगरके अधिपति इन्द्रको मैंने अनिन्द्रपना प्राप्त करा दिया था उसी प्रकार तुम देखना कि मैंने इस नारायणको अनारायण बना दिया है ॥१२२।। इस प्रकार अपनी कान्तिके समूहसे जिसका शरीर व्याप्त हो रहा था तथा जिसकी क्रियाएँ यमराजके आश्रित थीं ऐसा प्रतापी परमेश्वर रावण, अपनी सबलताका निरूपण कर .. मन्दोदरीके साथ क्रीड़ा गृहमें उस तरह प्रविष्ट हुआ जिस तरह कि लक्ष्मीके साथ इन्द्र प्रवेश करता है ॥१२३-१२४॥
अथानन्तर सायंकालका समय आया तो संन्ध्याके कारण जिसका मण्डल अस्तोन्मुख हो गया था ऐसे सूर्यने किरणोंको उस तरह संकोच लिया जिस तरह कि मुनि अपनी कषायोंको संकोच लेता है ।।१२५।। सूर्य लाल-लाल होकर अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो संन्ध्यावलि रूप ओष्ठ जिसमें डसा जा रहा था ऐसे बहुत भारी क्रोधसे लाल-लाल हो दिनको डाँट दिखाता हुआ कहीं चला गया था ॥१२६॥ कमलिनियोंके कमल बन्द हो गये थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो कमल रूपी अंजलिको बाँधने वाली कमलिनिघाँ चक्रवाक पक्षियों के शब्दके द्वारा अस्त हुए सूर्यको दीनता पूर्वक बुला ही रही थीं ॥१२७॥ सूर्यके अस्त होते ही उसी मार्गसे ग्रह और नक्षत्रोंकी सेना आ पहुँची सो ऐसी जान पड़ती थी मानो चन्द्रमाने उसे स्वच्छन्दतापूर्वक घूमनेके लिए छोड़ ही दिया था उसे आज्ञा ही दे रक्खी थी ॥१२८।। तदनन्तर दीपिका रूपी रत्नोंसे प्रकाशित प्रदोष कालके प्रकट होने पर प्रभासे जगमगाती हुई लंका मेरुकी शिखाके
१. दीपिता म०। Jain Education International
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