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त्रिसप्ततितमं पर्व
ततो दशाननोऽन्यत्र दिने परमभासुरः । आस्थानमण्डपे तस्थावुदिते दिवसाधिपे ॥१॥ कुवेरवरुणेशानयमसोमसमैनूपैः । रराज सेवितस्तत्र त्रिदशानामिवाधिपः ॥२॥ 'वृतः कुलोद्गतैर्वी रैः स्थितः केसरिविष्टरे । स बभार परां कान्ति निशाकर इव ग्रहैः ॥३॥ अत्यन्तसुरभिर्दिव्यनस्वस्त्रगनुलेपनः । हारातिहारिवक्षस्कः सुभगः सौम्यदर्शन: ॥४॥ सदोऽवलोकमानोऽगादिति चिन्ता महामनाः । मेघवाहनवीरोऽत्र स्वप्रदेशे न दृश्यते ॥५॥ महेन्द्रविभ्रमो नेतः शक्रजिन्नयनप्रियः । इतो भानुप्रभो भानुकर्णोऽसौ न निरीच्यते ॥६॥ नेदं सदासरः शोभा धारयत्यधुना पराम् । निर्महापुरुषाम्भोजं शेषपुस्कुमुदाञ्चितम् ॥७॥ उत्फुल्लपुण्डरीकाक्षः स मनोज्ञोऽपि तादृशः । चिन्तादुःखविकारेण कृतो दुःसहदर्शनः ॥८॥ कुटिलभृकुटीबन्धघनध्वान्तालिकाङ्गणम् । सरोषाशीविषच्छायं कृतान्तमिव भीषणम् ॥३॥ गाढदष्टाधरं स्वांशुचक्रमग्नं समीक्ष्य तम् । सचिवेशा भृशं भीताः किङ्कर्त्तव्यत्वगह्वराः ॥१०॥ ममायं कुपितोऽमुष्य तस्येत्याकुलमानसाः । स्थिताः प्राञ्जलयः सर्वे धरणीगतमस्तकाः ।।११।। मयोग्रशुकलोकाक्षसारणाद्याः सलजिताः । परस्परं विविक्षन्तः क्षितिं च विनताननाः ।।१२।।
अथानन्तर दूसरे दिन दिनकरका उदय होनेपर परम देदीप्यमान रावण सभामण्डपमें विराजमान हुआ ॥१॥ कुबेर, वरुण, ईशान, यम और सोमके समान अनेक राजा उसकी सेवा कर रहे थे जिससे वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्र ही हो ॥२।। कुलमें उत्पन्न हुए वीर मनुष्योंसे घिरा तथा सिंहासनपर विराजमान रावण ग्रहोंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान पर कान्तिको धारण कर रहा था ॥३॥ वह अत्यन्त सुगन्धिसे युक्त था, उसके वस्त्र, मालाएँ तथा अनुलेपन सभी दिव्य थे, हारसे उसका वक्षःस्थल अत्यन्त सुशोभित हो रहा था, वह सुन्दर था और सौम्य दृष्टिसे युक्त था ॥४॥ वह उदारचेता सभाकी ओर देखता हुआ इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि यहाँ वीर मेघवाहन अपने स्थानपर नहीं दिख रहा है ॥५॥ इधर महेन्द्रके समान शोभाको धारण करनेवाला नयनाभिरामी इन्द्रजित् नहीं है और उधर सूर्यके समान प्रभाको धारण करनेवाला भानुकुर्ण (कुम्भकर्ण) भी नहीं दिख रहा है ॥६॥ यद्यपि यह सभा रूपी सरोवर शेष पुरुष रूपी कुमुदोंसे सुशोभित है तथापि उक्त महापुरुष रूपी कमलोंसे रहित होनेके कारण इस समय उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त नहीं हो रहा है ॥७॥ यद्यपि उस रावणके नेत्र कमलके समान फूल रहे थे और वह स्वयं अनुपम मनोहर था तथापि चिन्ताजन्य दुःखके विकारसे उसकी ओर देखना कठिन जान पड़ता था ॥८॥
तदनन्तर टेढ़ी भौंहोंके बन्धनसे जिसके ललाट रूपी आँगनमें सघन अन्धकार फैल रहा था, जो कुपित नागके समान कान्तिको धारण करनेवाला था, जो यमराजके समान भयङ्कर था, जो बड़े जोरसे अपना ओठ डश रहा था, जो अपनी किरणोंके समूहमें निमग्न था ऐसे उस रावणको देख, बड़े-बड़े मन्त्री अत्यन्त भयभीत हो 'क्या करना चाहिये, इस विचारमें गम्भीर थे ॥६-१०॥ 'यह मुझपर कुपित है या उसपर' इस प्रकार जिनके मन व्याकुल हो रहे थे तथा जो हाथ जोड़े हुए पृथिवीकी ओर देखते बैठे थे ॥११॥ ऐसे मय, उग्र, शुक, लोकाक्ष और सारण आदि मन्त्री परस्पर एक दूसरेसे लज्जित होते हुए नीचेको मुख कर बैठे थे तथा ऐसे जान
१.तृतीयचतुर्थयोः श्लोकयोः ज पुस्तके क्रमभेदो वर्तते। २. मुक्तास्रग्मनोहरोरस्कः। ३. गादृष्टाधरं म०।
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