________________
एकसप्ततितम पर्व
स्वल्पैरेव दिनैः प्रायः प्रभोराचक्षते मृतिम् । विकाराः खलु भावानां जायन्त नान्यथेदशाः ।।५।। क्षीणेष्वामीय पुण्य याति शकोऽपि विच्युतिम् । जनता कर्मतन्त्रेयं गुणभूतं हि पौरुषम् ॥८६॥ लभ्यते खलु लब्धव्यं नातः शक्यं पलायितुम् । न काचिच्छूरता देवे प्राणिनां स्वकृताशिनाम् ।।८७॥ सर्वेषु नयशास्त्रेषु कुशलो लोकतन्त्रवित् । जैनव्याकरणाभिज्ञो महागुणविभूपितः ॥८॥ एवंविधो भवन् सोऽयं दशवक्त्रः स्वकर्मभिः । वाहितः प्रस्थितः कष्टमुन्मार्गेण विमूढधीः ॥८॥ मरणात्परमं दुःखं न लोके विद्यते परम् । न चिन्तयत्ययं पश्य तदप्यत्यन्तगर्वितः ॥१०॥ नक्षत्रबलनिर्मुक्तो ग्रहैः सुकुटिलः स्थितैः । पीड्यमानो रणक्षोणीमाकांक्षत्येष दुर्मनाः ॥११॥ प्रतापभङ्गभीतोऽयं वीरैकरसभावितः । कृतखेदोऽपि शास्त्रेषु युक्तायुक्तं न वीक्षते ॥१२॥ अतः परं महाराज दशग्रीवस्य मानिनः । मनसि स्थितमर्थ ते वदामि शृणु तत्त्वतः ॥१३॥ जित्वा सर्वजनं सर्वान् मुक्त्वा पुत्रसहोदरान् । प्रविशामि पुनर्लङ्कामिदं पश्चात्करोमि च ॥१४॥ उद्वासयामि सर्वस्मिन्नेतस्मिन्वसुधातले । क्षुद्रान् भूगोचरान श्लाघ्यान् स्थापयामि नभश्चरान् ॥१५॥
उपजातिवृत्तम्
येनाऽत्र वंशे सुरवम॑गानां त्रिलोकनाथाभिनुता जिनेन्द्राः । चक्रायुधा रामजनार्दनाश्च जन्म ग्रहीष्यन्ति तथाऽऽस्मदाद्याः ॥६६॥
सूख गये हैं। पहाड़ोंकी चोटियाँ नीचे गिरती हैं, आकाश रुधिर की वर्षा करता है ।।८४॥ प्रायः ये सब उत्पात थोड़े ही दिनों में स्वामीके मरणकी सूचना दे रहे हैं क्योंकि पदार्थों में इस प्रकारके अन्यथा विकार होते नहीं हैं ।।८५।। अपने पुण्यके क्षीण हो जाने पर इन्द्र भी तो च्युत हो जाता है। यथार्थमें जन-समूह कर्मों के आधीन है और पुरुषार्थ गुणीभूत है-अप्रधान है ।।८६॥ जो वस्तु प्राप्त होनेवाली है वह प्राप्त होती ही है उससे दूर नहीं भागा जा सकता। दैवके रहते प्राणियोंकी कोई शूरवीरता नहीं चलती उन्हें अपने कियेका फल भोगना ही पड़ता है ॥७॥ देखो, जो समस्त नीति शास्त्रमें कुशल है, लोकतन्त्रको जानने वाला है, जैन व्याख्यानका जानकार है और महागुणांसे विभूषित है ऐसा रावण इस प्रकारका होता हुआ भी स्वकृत कर्मों के द्वारा कैसा चक्रमें डाला गया कि हाय, वे चारा विमूढ़ बुद्धि हो उन्मार्गमें चला गया ॥८८८६॥ संसारमें मरणसे बढ़कर कोई दुःख नहीं है पर देखो, अत्यन्त गर्वसे भरा रावण उस मरणको भी चिन्ता नहीं कर रहा है ॥६॥ यह यद्यपि नक्षत्र बलसे रहित है तथा कुटिल-पाप ग्रहोंसे पीड़ित है तथापि मूर्ख हुआ रणभूमिमें जाना चाहता है ॥६१।। यह प्रतापके भगसे भयभीत है, एक वीर रसकी ही भावनासे युक्त है तथा शास्त्रोंका अभ्यास यद्यपि इसने किया है तथापि युक्त-अयुक्तको नहीं देखता है ॥२॥ अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे महाराज ! अब मैं मानी राबणके मनमें जो बात थी उसे कहता हूँ तू यथार्थ में सुन ॥६३।। रावणके मनमें था कि सब लोगोंको जीतकर तथा पुत्र और भाईको छुड़ा कर मैं पुनः लंकामें प्रवेश करूँ ? और यह सब पीछे करता रहूँ ॥६४|| इस पृथिवीतलमें जितने क्षुद्रभूमि गोचरी हैं मैं उन सबको यहाँसे हटाऊँगा और प्रशंसनीय जो बिद्याधर हैं, उन्हें ही यहाँ बसाऊँगा ।।१५।। जिससे कि तीनों लोकोंके नाथके द्वारा स्तुत तीर्थङ्कर जिनेन्द्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण तथा
१. नान्यथेदृशः म० | २. महाराजन् ! म०, ज० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org