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पद्मपुराणे
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मनसा सम्प्रधार्यैव महाविभवसङ्गतः । ययावन्तः पुराम्भोजखण्डं रावणवारणः ॥ ७० ॥ ततः परिभवं स्मृत्वा महान्तं शत्रुसम्भवम् । क्रोधारणेक्षणो भीमः संवृत्तोऽन्तकसन्निभः ॥ ७१ ॥ बभाण दशवक्त्रस्तद्वचनं स्फुरिताधरः । स्त्रीणां मध्ये ज्वरो येन समुद्दीप्तः सुदुःसहः ॥ ७२ ॥ गृहीत्वा समरे पापं तं दुग्रवं सहाङ्गदम् । भागद्वयं करोम्येष खड्गेन द्युतिहासिना ||७३ || तमोमण्डलकं तं च गृहीत्वा दृढसंयतम् । लोहमुद्गरनिर्घातैस्त्याजयिष्यामि जीवितम् ॥७४ || करालतीच्णधारेण क्रकचेन मरुत्सुतम् । यन्त्रितं काष्ठयुग्मेन पादयिष्यामि दुर्णयम् ॥ ७५ ॥ | मुक्त्वा राघवमुद्वृत्तानखिलानाहवे परान् । अस्त्रौघैश्वर्णयिष्यामि दुराचारान् हतात्मनः ॥ ७६ ॥ इति निश्चयमापने वर्तमाने दशानने । वाचो नैमित्तवक्त्रेषु चरन्ति मगधेश्वर ॥७७॥ उत्पाताः शतशो भीमाः सम्प्रत्येते समुद्गताः । आयुवप्रतिमो रूक्षः परिवेषः खरस्त्रिषः ॥७८॥ समस्तां रजनीं चन्द्रो नष्टः क्वापि भयादिव । निपेतुधार निर्धाता भूकम्पः सुमहानभूत् ।। ७६ ।। वेपमाना दिशि प्राच्या मुल्काशोणितसन्निभा । पपात विरसं रेदुरुत्तरेण तथा शिवाः ||८०|| हेषन्ति कम्पितग्रीवास्तुरङ्गाः प्रखरस्वनाः । हस्तिनो रूक्षनिःस्वाना धनंति हस्तेन मेदिनीम् ॥८१॥ दैवतप्रतिमा जाता लोचनोदकदुर्दिनाः । निपतन्ति महावृक्षा विना दृष्टेन हेतुना ॥ ८२ ॥ आदित्याभिमुखीभूताः काकाः खरतरस्वनाः । सङ्घातवर्जिनों जाताः स्रस्तपक्षा महाकुलाः ॥८३॥ सरांसि सहसा शोषं प्राप्तानि विपुलान्यपि । निपेतुर्गिरिशृङ्गाणि नभो वर्षति शोणितम् ॥८४॥
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भी नहीं होग अतः मैं निश्चिन्त चित्त होकर ऐसा ही करता हूँ || ६६ ॥ मनसे इस प्रकार निश्चय कर महा वैभव से युक्त रावण रूपी हाथी अन्तःपुर रूपी कमल वनमें चला गया ||७०||
तदनन्तर शत्रु की ओरसे उत्पन्न महान् परिभवका स्मरण कर रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और बह स्वयं यमराजके समान भयंकर हो गया ॥ ७१ ॥ जिसका ओठ काँप रहा था ऐसा रावण वह वचन बोला कि जिससे स्त्रियोंके बीचमें अत्यन्त दुःसह ज्वर उत्पन्न हो जया ॥७२॥ उसने कहा कि मैं युद्ध में अङ्गद सहित उस पापी दुर्ग्रावको पकड़ कर किरणों से हँसनेवाला तलवार से उसके दो टुकड़े अभी हाल करता हूँ || ७३ ॥ उस भामण्डलको पकड़ कर तथा अच्छी तरह बाँध कर लोहके मुद्ररोंकी मारसे उसके प्राण घुटाऊँगा ॥ ७४ ॥ और अन्यायी हनुमान्को दो लकड़ियोंके सिकंजे में कस कर अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाली करोंत से चीरूँगा ॥ ७५ ॥ एक रामको छोड़ कर मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवाले जितने अन्य दुराचारी दुष्ट शत्रु हैं उन सबको युद्ध में शस्त्र समूह से चूर-चूर कर डालूँगा ॥७६॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! जब रावण उक्त प्रकारका निश्चय कर रहा था तब निमित्तज्ञानियों के मुखों में निम्न प्रकारके वचन विचरण कर रहे थे अर्थात् वे परस्पर इस प्रकार की चर्चा कर रहे थे कि || ७७ || देखो, ये सैकड़ों प्रकार के उत्पात हो रहे हैं । सूर्यके चारों ओर शस्त्र के समान अत्यन्त रूक्ष परिवेष - परिमण्डल रहता है || ७ || पूरी की पूरी रात्रि भर चन्द्रमा भयसे ही मानों कहीं छिपा रहता है, भयंकर वज्रपात होते हैं, अत्यधिक भूकम्प होता है ॥ ७६ ॥ पूर्व दिशा में काँपती हुई रुधिरके समान लाल उल्का गिरी थी और उत्तर दिशा में शृगाल नीरस शब्द कर रहे थे ||२०|| घोड़े ग्रीवाको कँपाते तथा प्रखर शब्द करते हुए हींसते हैं और हाथी कठोर शब्द करते हुए सूंड़से पृथिवीको ताड़ित करते
अर्थात् पृथिवी पर सूंड़ पटकते हैं ||२|| देवताओंकी प्रतिमाएँ अश्रुजलकी वर्षा के लिए दुर्दिन स्वरूप बन गई हैं। बड़े बड़े वृक्ष बिना किसी दृष्ट कारणके गिर रहे हैं ||२|| सूर्यके सन्मुख हुए कौए अत्यन्त तीक्ष्ण शब्द कर रहे हैं, अपने झुण्डको छोड़ अलग-अलग जाकर बैठे हैं, उनके प ढीले पड़ गये हैं तथा वे अत्यन्त व्याकुल दिखाई देते हैं ||३|| बड़े से बड़े तालाब भी अचानक
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१. युक्ता म० । २. महावृक्षाः म० । ३. कर कर स्वनाः ज० । For Private & Personal Use Only
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