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पद्मपुराणे
शिखराण्यगराजस्य चैत्यकूटानि सागरम् । महानदीश्च पश्यन्ती जनयात्मसुखासिकाम् ॥४१॥ कृत्वा करपुटं सीता ततः करुणमभ्यधात् । वापसम्भारसंरुद्धकण्ठा कृच्छ्रण सादरम् ॥४२॥ दशानन ! यदि प्रीतिर्विद्यते तव मां प्रति । प्रसादो वा ततः कर्तुं ममेदं वाक्यमर्हसि ॥४३॥ क्रनापि त्वया संख्ये प्राप्तोऽभिमुखतामसौ । अनिवेदितसन्देशो न हन्तव्यः प्रियो मम ॥४४॥ पा भामण्डलस्वत्रा तव सन्दिष्टमीदृशम् । यथा श्रुत्वाऽन्यथा स्वाहं विधियोगेन संयुगे ॥४५॥ महता शोकभारेण समाक्रान्ता सती प्रभो। वात्याहतप्रदीपस्य शिखेव क्षणमात्रतः ॥४६॥ राजर्षेस्तनया शोच्या जनकस्य महात्मनः । प्राणानेषा न मुञ्चामि त्वत्समागमनोत्सुका ॥४७॥ इत्युक्त्वा मूच्छिता भूमौ पपात मुकुलक्षणा । हेमकल्पलता यद्भग्ना मत्तेन दन्तिना ॥४८॥ तदवस्थामिमां दृष्ट्रा रावणो मृमानसः । बभूव परमं दुःखी चिन्ता चैतामुपागतः ॥४६॥ अहो निकाचितस्नेहः कर्मबन्धोदयादयम् । अवसानविनिर्मुक्तः कोऽपि संसारगहरे ॥५०॥ धिक धिक किमिदमश्लाध्यं कृतं सुविकृतं मया। यदन्योन्यरतं भीरुमिथुनं सद्वियोजितम् ॥५१॥ पापातुरो विना कार्य पृथग्जनसमो महत् । अयशोमलमाप्तोऽस्मि सद्भिरत्यन्तनिन्दितम् ॥५२॥ शुद्धाम्भोजसमं गोत्रं विपुलं मलिनीकृतम् । दुरात्मना मया कष्टं कथमेतदनुष्ठितम् ॥५३॥ धिङ्नारी पुरुषेन्द्राणां सहसा मारणत्मिकाम् । किम्पाकफलदेशीयां क्लेशोत्पत्तिवसुन्धराम् ॥५४॥. भोगिममणिच्छायासदृशी मोहकारिणी । सामान्येनाङ्गना तावत् परस्त्री तु विशेषतः ॥५५॥
हो अपनी इच्छानुसार जगत्में विहार करो॥४०॥ सुमेरुके शिखर, अकृत्रिम चैत्यालय, समुद्र और महानदियोंको देखती हुई अपने आपको सुखी करो ॥४१॥
तदनन्तर अश्रुओंके भारसे जिसका कण्ठ सँध गया था ऐसी सीता बड़े कष्टसे आदरपूर्वक हाथ जोड़ करुण स्वर में रावणसे बोली ॥४२॥ कि हे दशानन ! यदि मेरी प्रति तुम्हारी प्रीति है अथवा मुझ पर तुम्हारी प्रसन्नता है तो मेरा यह वचन पूर्ण करनेके योग्य हो ॥४३।। यदमें राम तम्हारे सामने आवें तो कुपित होने पर भी तम मेरा सन्देश कहे विना उन्हें नहीं मारना ॥४४॥ उनसे कहना कि हे राम! भामण्डलकी बहिनने तुम्हारे लिए ऐसा सन्देश दिया है कि कर्मयोगसे तुम्हारे विषयकी युद्ध में अन्यथा बात सुन महात्मा राजर्षि जनककी पुत्री सीता, अत्यधिक शोकके भारसे आक्रान्त होती हुई आँधीसे ताड़ित दीपककी शिखाके समान क्षणभर में शोचनीय दशाको प्राप्त हुई है। हे प्रभो ! मैंने जो अभीतक प्राण नहीं छोड़े हैं सो आपके समागमकी उत्कण्ठासे ही नहीं छोड़े हैं ।।४५-४७॥ इतना कह वह मूर्छित हो नेत्र बन्द करती हुई उस तरह पृथिवी पर गिर पड़ी जिस तरह कि मदोन्मत्त हाथीके द्वारा खण्डित सुवर्णमयी कल्पलता गिर पड़ती है ॥४८॥
तदनन्तर सीताकी वैसी दशा देख कोमल चित्तका धारी रावण परम दुखी हुआ तथा इस प्रकार विचार करने लगा कि अहो! कर्मबन्धके कारण इनका यह स्नेह निकाचित स्नेह हैकभी छूटनेवाला नहीं है। जान पड़ता है कि इसका संसार रूपी गर्त में रहते कभी अवसान नहीं होगा ॥४६-५०।। मुझे बार-बार धिक्कार है मैंने यह क्या निन्दनीय कार्य किया जो परस्पर प्रेयसे युक्त इस मिथुनका विछोह कराया ॥५१।। मैं अत्यन्त पापी हूँ बिना प्रयोजन ही मैंने साधारण मनुष्यके समान सत् पुरुषोंसे अत्यन्त निन्दनीय अपयश रूपी मल प्राप्त किया है ॥५२॥ मुझ दुष्टने कमलके समान शुद्ध विशाल कुलको मलिन किया है। हाय हाय मैंने यह अकार्य कैसे किया ? ॥५३॥ जो बड़े-बड़े पुरुषोंको सहसा मार डालती है, जो किंपाक फलके समान है तथा दुःखोंकी उत्पत्तिकी भूमि है ऐसी स्त्रीको धिक्कार है ॥५४॥ सामान्य रूपसे स्त्री मात्र,
१. सीतया । २. निकाञ्चितस्नेहः म० । ३.-दहम् म० ।
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