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एकसप्ततितमं पर्व
नदीव कुटिला भीमा धर्मार्थपरिनाशिनी । वर्जनीया सतां यत्नात्सर्वाशुभमहाखनिः॥५६॥ अमृतेनेव या दृष्टा मामसिञ्चन्मनोहरा । अमरीभ्योऽपि दयिता सर्वाभ्यः पूर्वमुत्तमा ॥५॥ अयैव सा परासक्तहृदया जनकात्मजा। विषकुम्भीसमात्यन्तं सजातोद्वेजनी मम ॥५॥ अनिच्छत्यपि मे पूर्वमशन्यं याकरोन्मनः । सैवेयमधुना जीर्णतृणानादरमागता ॥५६॥ अधुनाऽन्याहितस्वान्ता यद्यपीच्छेदियं तु माम् । तथापि काऽनया प्रीतिः सद्भावपरिमुक्तया ॥६०॥ आसीद्यदानुकूलो मे विद्वानू भ्राता विभीषणः । उपदेष्टा तदा नैवं शमं दग्धं मनो गतम् ॥६॥ प्रमादाद्विकृति प्राप्तं मनः समुपदेशतः । प्रायः पुण्यवतां पुंसां वशीभावेऽवतिष्ठते ॥६॥ श्वः संग्रामकृतौ सार्द्ध सचिवमन्त्रणं कृतम् । अधुना कीदृशी मैत्री वीरलोकविगहिंता ॥६॥ योद्धव्यं करुणा चेति द्वयमेतद्विरुध्यते । अहो सङ्कटमापनः प्राकृतोऽहमिदं महत् ॥६॥ यद्यर्पयामि पद्माय जानकी कृपयाऽधुना । लोको दुग्रहचित्तोऽयं ततो मां वेत्यशक्तकम् ॥६५॥ यत् किञ्चित्करणोन्मुक्तः सुखं जीवति निघृणः । जीवस्यस्मद्विधो दुःखं करुणामृदुमानसः ॥६६॥ हरिताचर्यसमुन्नद्धौ तौ कृस्वाऽऽजौ निरनको । जीवनाहं गृहीतौ च पमलक्षणसंज्ञको ॥६॥ पश्चाद्विभवसंयुक्तो पद्मनाभाय मैथिलीम् । अर्पयामि न मे पापं तथा सत्युपजायते ॥६॥ महाँलोकापवादश्च भयान्यायसमुद्भवः । न जायते करोम्येवं ततो निश्चिन्तमानसः ॥६६॥
नागराजके फणपर स्थित मणिकी कान्तिके समान मोह उत्पन्न करनेवाली है और परस्त्री विशेष रूपसे मोह उत्पन्न करनेवाली है ।।५५।। यह नदीके समान कुटिल है, भयंकर है, धर्म अर्थको नष्ट करनेवाली है, और समस्त अशुभोंकी खानि है । यह सत्पुरुषोंके द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़नेके योग्य है ॥५६॥ जो सीता पहले इतनी मनोहर थी कि दिखनेपर मानो अमृतसे ही मुझे सींचती थी और समस्त देवियोंसे भी अधिक प्रिय जान पड़ती थी आज वही परासक्तहृदया होनेसे विषभृत कलशीके समान मुझे अत्यन्त उद्वेग उत्पन्न कर रही है ।।५७-५८॥ नहीं चाहने पर भी जो पहले मेरे मनको अशून्य करती थी अर्थात् जो मुझे नहीं चाहती थी फिर भी मैं मनमें निरन्तर जिसका ध्यान किया करता था वही आज जीर्ण तृणके समान अनादरको प्राप्त हुई है ॥५६।। अन्य पुरुष में जिसका चित्त लग रहा है ऐसी यह सीता यदि मुझे चाहती भी है तो सद्भावसे रहित इससे मुझे क्या प्रीति हो सकती है ? ॥६०॥ जिस समय मेरा विद्वान भाई विभीषण, मेरे अनुकल था तथा उसने हितका उपदेश दिया था उस समय यह दुष्ट : प्रकार शान्तिको प्राप्त नहीं हुआ ॥६१।। अपितु उसके उपदेशसे प्रमादके वशीभूत हो उल्टा विकार भावको प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि प्रायःकर पुण्यात्मा पुरुषों का ही मन वशमें रहता है ॥६२॥ यह विचार करनेके अनन्तर रावणने पुनः विचार किया कि कल संग्राम करनेके विषयमें मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा की थी फिर इस समय वीर लोगोंके द्वारा निन्दित मित्रता की चर्चा कैसी ? ॥६३॥ युद्ध करना और करुणा प्रकट करना ये दो काम विरुद्ध हैं । अहो ! मैं एक साधारण पुरुषकी तरह इस महान संकटको प्राप्त हुआ हूँ ॥६४॥ यदि मैं इस समय दया वश रामके लिए सीताको सौंपता हूँ तो लोग मुझे असमर्थ समझेगे क्योंकि सबके चित्तको समझना कठिन है ॥६५।। जो चाहे जो करने में स्वतन्त्र है ऐसा निर्दय मनुष्य सुखसे जीवन बिताता
और जिसका मन दयासे कोमल है ऐसा मेरे समान पुरुष दुःखसे जीवन काटता है ॥६६॥ यदि मैं सिंहवाहिनी और गरुडवाहिनी विद्याओंसे युक्त राम-लक्ष्मणको युद्धमें निरस्त कर जीवित पकड़ लू और पश्चात् वैभवके साथ रामके लिए सीताको वापिस सौं। तो ऐसा करनेसे मुझे सन्ताप नहीं होगा ।।६७-६८। साथ ही भय और अन्यायसे उत्पन्न हुआ बहुत भारी लोकापबाद
१. दग्यं नीचं मनः शमं नैव गतम् । २. स्वसंग्रामवृत्तौ म । ३. निश्चितमानसः म० ।
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