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एकसप्ततितमं पर्व
तमालोक्य समायान्तं विद्याधर्यो बभाषिरे । पश्य पश्य शुभे सीते रावणस्य महाद्य तिम् ॥२६॥ पुष्पकामादयं श्रीमान् अवतीर्य महाबलः । नानाधातुविचित्राङ्गान् महीभृद्गह्वरादिव ॥२७॥ गजेन्द्र इव सक्षीबः सूर्याशुपरितापितः । स्मरानलपरीताङ्गः पूर्णचन्द्रनिभाननः ॥२८॥ पुष्पशोभापरिच्छन्नमुपगीतं षडनिभिः । विशति प्रमदोद्यानं दृष्टिरत्र निधीयताम् ॥२६॥ त्रिकूटाधिपतावस्मिन् रूपं निरुपमं श्रिते । सफला जायतां ते दृगु रूपं चास्येदमुत्तमम् ॥३०॥ ततो विमलया दृष्ट्या तया बाह्यान्तरात्मनः । चापान्धकारितं वीचय बलमेवमचिन्तयत ॥३१॥ अदृष्टपारमुवृत्तं बलमीदृङ् महाप्रभम् । रामो लक्ष्मीधरो वाऽपि दुःखं जयति संयुगे ॥३२॥ अधन्या किं नु पनाभं किं वा लचमणसुन्दरम् । हतं श्रोष्यामि सङ्ग्रामे किंवा पापा सहोदरम् ॥३३॥ एवं चिन्तामुपायातां परमाकुलितास्मिकाम् । कम्पमानां परित्रस्तां सीतामागत्य रावणः ॥३४॥ जगाद देवि! पापेन त्वं मया छमना हृता । जात्रगोत्रप्रसूतानां किमिदं साप्रतं सताम् ॥३५॥ अवश्यम्भाविनो नूनं कर्मणो गतिरीहशी । स्नेहस्य परमस्येयं मोहस्य बलिनोऽथ वा ॥३६॥ साधनां सन्निधौ पूर्व व्रतं भगवतो मया। वन्द्यस्यानन्तवीर्यस्य पादमूले समार्जितम् ॥३७॥ या वृणोति न मां नारी रमयामि न तामहम् । यद्यर्वशी स्वयं रम्भा यदि वाऽन्या मनोरमा ॥३८॥ इति पालयता सत्यं प्रसादापेक्षिणा मया । प्रसभं रमिता नासि जगदुत्तमसुन्दरि ॥३६॥ अधुनाऽऽलम्बने छिने मद्भजप्रेरितैः शरैः । वैदेहि ! पुष्पकारूढा विहर स्वेच्छया जगत् ॥४०॥
समान सुशोभित हो रहा था ॥२५॥। उसे आता देख विद्याधरियोंने कहा कि हे शुभे ! सीते! देख, रावणको महाकान्ति देख ॥२६॥ जो नाना धातुओंसे चित्र-विचित्र हो रहा है ऐसे पुष्पक विमानसे उतरकर यह श्रीमान् महाबलवान् ऐसा चला आ रहा है मानो पर्वतकी गुफासे निकलकर सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त हुआ उन्मत्त गजराज ही आ रहा हो । इसका समस्त शरीर कामग्रिसे व्याप्त है तथा यह पूर्णचन्द्र के समान मुखको धारण कर रहा है ॥२७-२८॥ यह फूलोंकी शोभासे व्याप्त तथा भ्रमरोंके संगीतसे मुखरित प्रमद उद्यानमें प्रवेश कर रहा है । जरा, इसपर दृष्टि तो डालो ।।२।। अनुपम रूपको धारण करनेवाले इस रावणको देखकर तेरी दृष्टि सफल हो जावेगी। यथार्थमें इसका रूप ही उत्तम है ।।३०।। तदनन्तर सीताने निर्मल दृष्टिसे बाहर और भीतर धनुषके द्वारा अन्धकार उत्पन्न करनेवाले रावणका बल देख इस प्रकार विचार किया कि इसके इस प्रचण्ड बलका पार नहीं है। राम और लक्ष्मण भी इसे युद्ध में बड़ी कठिनाईसे जीत सकेंगे ॥३१-३२॥ मैं बड़ी अभागिनी हूँ, बड़ी पापिनी हूँ जो युद्धमें राम लक्ष्मण अथवा भाई भामण्डलके मरनेका समाचार सुनूँगी ॥३३॥ इस प्रकार चिन्ताको प्राप्त होनेसे जिसकी आत्मा अत्यन्त विह्वल हो रही थी, तथा जो भयसे काँप रही थी ऐसी सीताके पास आकर रावण बोला कि हे देवि ! मुझ पापीने तुम्हें छलसे हरा था सो क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए सत्पुरुषोंके लिए क्या यह उचित है ? ॥३४-३५।। जान पड़ता है कि किसी अवश्य भावी कर्मकी यह दशा है अथवा परम स्नेह और सातिशय बलवान् मोहका यह परिणाम है ॥३६॥ मैंने पहले अनेक मुनियोंके सन्निधानमें वन्दनीय श्रीभगवान् अनन्तवीर्य केवलीके पादमूल में यह व्रत लिया था कि जो स्त्री मुझे नहीं बरेगी मैं उसके साथ रमण नहीं करूँगा भले ही वह उवेशी, रम्भा अथवा और कोई मनोहारिणी स्त्री हो ॥३७-३८॥ हे जगत्की सर्वोत्तम सुन्दरि ! इस सत्यव्रतका पालन करता हुआ मैं तुम्हारे प्रसादकी प्रतीक्षा करता रहा हूँ और बलपूर्वक मैंने तुम्हारा रमण नहीं किया है ॥३६॥ हे वैदेहि ! अब मेरी भुजाओंसे प्रेरित बाणोंसे तुम्हारा आलम्बन जो राम था सो छिन्न होनेवाला है इसलिए पुष्पक विमानमें आरूढ़
१. बलात् । Jain Education Internations
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