________________
१६
पद्मपुराणे
इन्द्रनीलमयीं भूमिं स्मृत्वा का चिंत्समानया । बुद्ध्या प्रतारिताः सन्तः पेतुर्भूतलवेश्मसु ॥ २१ ॥ तत उद्गतभूच्छेदशङ्कया शरणान्तरे । भूमिष्यथैन्द्रनीलीषु ज्ञात्वा ज्ञात्वा पदं ददुः ||३०|| नारों स्फटिकसोपानानामग्रगमनोद्यताम् । व्योम्नीति विविदुः पादन्यासान् तु पुनरन्यथा ||३१|| तां पिवो यान्तः शङ्किताः पुनरन्तरा । भित्तिष्वापतितास्तस्थुः स्फाटिकीषु सुविह्वलाः ॥ ३२ ॥ पश्यन्ति शिखरं शान्तिभवनस्य समुखतम् । गन्तुं पुनर्न ते शक्ता भित्तिभिः स्फटिकात्मभिः ॥ ३३ ॥ विलासिनि वदाध्वानमिति कश्चित्वरान्वितः । करे स्तम्भसमासक्तामगृहीच्छालभञ्जिकाम् ||३४॥ दृष्टं कश्चित्प्रतीहारं हेमबेत्रलताकरम् । जगाद शान्तिगेहस्य पन्थानं देशयाऽऽश्विति ||३५|| कथं न किञ्चिदुरिको प्रवीत्येष विसम्भ्रमः । इति घ्नन् पाणिना वेगादवापाङ्गुलिचूर्णनम् ||३६|| कृत्रिमोऽयमिति ज्ञात्वा हस्तस्पर्शनपूर्वकम् । किञ्चित् कक्षान्तरं जग्मुर्द्वारं विज्ञाय कृच्छ्रतः ॥ ३७ ॥ द्वारमेत कुख्यं तु महानीलमयं भवेत् । इति ते संशयं प्राप्ताः करं पूर्वमसारयन् ||३८|| स्वयमप्यागतं मार्ग पुनर्निर्गन्तुमचमाः । शान्स्यालयगतौ बुद्धिं कुटिलभ्रान्तयो दधुः ॥३१ ॥ ततः कञ्चिमरं ष्ट्वा वाचा विज्ञाय सत्यकम् । कश्चिज्जग्राह केशेषु जगाद च सुनिष्ठुरम् ॥४०॥ गच्छ गच्छाप्रतो मार्ग शान्तिहर्म्यस्य दर्शय । इति तस्मिन् पुरो याति ते बभूवुर्निराकुलाः ॥३१ ॥
पैर और घुटने टूट रहे थे तथा जो ललाटकी तीव्र चोट से तिल मला रहे थे, ऐसे वे पदाति यद्यपि लौटना चाहते थे पर उन्हें निकलने का मार्ग ही नहीं मिलता था ||२८|| जिस किसी तरह इन्द्रनीलमणिमय भूमिका स्मरणकर वे लौटे तो उसीके समान दूसरो भूमि देख उससे छकाये गये और पृथिवी के नीचे जो घर बने हुए थे उनमें जा गिरे ||२६|| तदनन्तर कहीं पृथिवी तो नहीं फट पड़ी है, इस शङ्कासे दूसरे घर में गये और वहाँ इन्द्रनीलमणिमय जो भूमियाँ थीं उनमें जान - ! जानकर धीरे-धीरे डग देने लगे ||३०|| कोई एक स्त्री स्फटिककी सीढ़ियोंसे ऊपर जानेके लिए
तभी उसे देखकर पहले तो उन्होंने समझा कि यह स्त्री अधर आकाश में स्थित है परन्तु बाद में पैरोंके रखने उठानेकी क्रियासे निश्चय कर सके कि यह नीचे ही है ॥ ३१ ॥ उस स्त्रीसे पूछने की इच्छा से भीतर की दीवालोंमें टकराकर रह गये तथा विह्वल होने लगे ||३२|| वे शान्तिजिनालय के ऊँचे शिखर देख तो रहे थे परन्तु स्फटिककी दीवालोंके कारण वहाँ तक जाने में समर्थ नहीं थे ||३३|| हे विलासिनि ! मुझे मार्ग बताओ इस प्रकार पूछने के लिए शीघ्रता से भरे किसी सुभटने खम्भे में लगी हुई पुतलीका हाथ पकड़ लिया ॥ ३४॥ आगे चलकर हाथमें स्वर्णमयी बेलाको धारण करने वाला एक कृत्रिम द्वारपाल दिखा उससे किसी सुभटने पूछा कि शीघ्र ही शान्ति - जिनालयका मार्ग कहो ||३५|| परन्तु वह कृत्रिम द्वारपाल क्या उत्तर देता ? जब कुछ उत्तर नहीं मिला तो अरे यह अहंकारी तो कुछ कहता ही नहीं है यह कहकर किसी सुभटने उसे वेगसे एक थप्पड़ मार दी पर इससे उसीकी अंगुलियाँ चूर-चूर हो गई || ३६ || तदनन्तर हाथसे स्पर्शकर उन्होंने जाना कि यह सचमुचका द्वारपाल नहीं किन्तु कृत्रिम द्वारपाल हैपत्थरका पुतला है । इसके पश्चात् बड़ी कठिनाईसे द्वार मालूमकर वे दूसरी कक्ष में गये ॥३७॥ ऐसा तो नहीं है कि कहीं यह द्वार न हो किन्तु महानीलमणियोंसे निर्मित दीवाल हो' इस प्रकारके संशयको प्राप्त हो उन्होंने पहले हाथ पसारकर देख लिया ||३८|| उन सबकी भ्रान्ति इतनी कुटिल हो गई कि वे स्वयं जिस मार्ग से आये थे उसी मार्गसे निकलनेमें असमर्थ हो गये अतः निरुपाय हो उन्होंने शान्ति - जिनालय में पहुँचनेका ही विचार स्थिर किया ॥३६॥ तदनन्तर किसी मनुष्य को देख और उसकी बोलीसे उसे सचमुचका मनुष्य जान किसी सुभटने उसके केश पकड़कर कठोर शब्दों में कहा कि चल आगे चल शान्ति जिनालयका मार्ग दिखा। इसप्रकार कहनेपर जब वह आगे चलने लगा तब कहीं वे निराकुल हुए ||४०-४१||
१. क्षत्रियोऽय-म० (१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org