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एकसप्ततितमं पर्व
शान्तं यक्षाधिपं ज्ञात्वा सुतारात्मजसुन्दरः । दशाननपुरीं द्रष्टुमुद्यतः परमोजितः ॥ १ ॥ उदाराम्बुदवृन्दाभं मुक्तामात्यविभूषितम् । धवलेश्चामरैर्दीप्तं महाघण्टानिनादितम् ॥२॥ किष्किन्धकाण्डनामानमारूढो वरवारणम् । रराज मेघपृष्ठस्थ पौर्णमासीशशाङ्कवत् ॥३॥ तथा स्कन्देन्द्रनीलाद्या महद्धिपरिराजिताः । तुरङ्गादिसमारूढाः कुमारा गन्तुमुद्यताः ||४|| पदातयो महासंख्याश्चन्दनाचितविग्रहाः । ताम्बूलरागिणो नानामुण्डमालामनोहराः ॥५॥ कटकोद्भासिबाह्वन्ताः स्कन्धन्यस्ता सिखेटकाः । चलावतंसकाश्वित्रपर मांशुकधारिणः ॥६॥ हेमसूत्र परिक्षिप्तमौलयश्चारुविभ्रमाः । अग्रतः प्रसृता गर्वकृतालापाः सुतेजसः ॥७॥
मृदङ्गादिवादिसदृशं वरम् । पुरो जनः प्रवीणोऽस्य चक्रे शृङ्गारनर्तनम् ||८|| मन्दस्तूर्यस्वनश्चित्रो मनोहरणपण्डितः । शङ्खनिःस्वनसंयुक्तः काहलावत् समुययौ ॥३॥ विविशुश्च कुमारेशाः सविलासविभूषणाः । लङ्कां देवपुरीतुल्यामसुरा इव चञ्चलाः ॥१२॥ महिना पुरुणा युक्तदशास्यनगरीं ततः । प्रविष्टमङ्गदं वीच्य जगावित्यङ्गनाजनः ॥११॥ यस्यैषा ललिता कf विमला दम्तनिर्मिता । विराजते महाकान्तिकोमला तलपत्रिका ||१२|| ग्रहणामिव सर्वेषां समवायो महाप्रभः । द्वितीयश्रवणे चायं चपलो मणिकुण्डलः ॥ १३ ॥
अथानन्तर यक्षराजको शान्त सुन अतिशय बलवान् अङ्गद, लंका देखनेके लिए उद्यत हुआ | महामेघ मण्डलके समान जिसकी आभा थी, जो मोतियोंकी मालाओं से अलंकृत था, सफेद चामरोंसे देदीप्यमानं था और महाघण्टा के शब्द से शब्दायमान था, ऐसे किष्किन्धकाण्ड नामक हाथी पर सवार हुआ अङ्गद मेघपृष्ठ पर स्थित पौर्णमासीके चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहा था ॥१-३ || इसके सिवाय जो बड़ी सम्पदा से सुशोभित थे ऐसे स्कन्द तथा नील आदि कुमार भी घोड़े आदि पर आरूढ़ हो जानेके लिए उद्यत हुए ||४|| जिनके शरीर चन्दनसे अर्चित थे, जिनके ओठ ताम्बूलके रङ्गसे लाल थे, जो नाना प्रकारके मस्तकोंके समूहसे मनोहर थे, जिनकी भुजाओंके अन्त प्रदेश अर्थात् मणिवन्ध कटकोंसे देदीप्यमान थे, जिन्होंने अपने कन्धों पर तलवारें रख छोड़ों थीं, जिनके कर्णाभरण चश्चल थे, जो चित्र-विचित्र उत्तम वस्त्र धारण किये हुए थे, जिनके मुकुट सुवर्ण-सूत्रों से वेष्टित थे, जो सुन्दर चेष्टाओंके धारक थे, जो दर्प पूर्ण वार्तालाप करते जाते थे, तथा जो उत्तम तेजके धारक थे ऐसे पदाति उन कुमारोंके आगे-आगे जा रहे थे ॥५-७ ॥ चतुर मनुष्य इनके आगे वाँसुरी वीणा मृदङ्ग आदि वाजोंके अनुरूप शृङ्गार पूर्ण उत्तम नृत्य करते जाते थे ॥८॥ जो मनके हरण करनेमें निपुण था तथा शङ्खके शब्दों से संयुक्त था, ऐसा तुरहियोंका नाना प्रकारका गम्भीर शब्द काहला - रण तूर्यके शब्द के समान जोर-शोर से उठ रहा था ॥६॥
तदनन्तर विलास और विभूषणोंसे युक्त उन चपल कुमारोंने स्वर्ग सदृश लंका में असुर कुमारोंके समान प्रवेश किया ||१०|| तत्पश्चात् महा महिमासे युक्त अङ्गदको लंका नगरी में प्रविष्ट देख वहाँकी स्त्रियाँ परस्पर इस प्रकार कहने लगीं ||११|| हे सखि ! देख, जिसके एक कानमें दन्त निर्मित महाकान्तिसे कोमल निर्मल तालपत्रिका सुशोभित हो रही है और दूसरे कान में समस्त ग्रहोंके समूह के समान महाप्रभासे युक्त यह चश्चल मणिमय कुण्डल शोभा पा रहा है तथा जो
१. मुक्तासाल ख० । २. पृष्ठस्थः पौर्णमासी-म० ज० । ३. मन्दस्तूर्य - म० । ४. काहलादिः व० । ५. युक्तां म० । ६. तले पत्रिका म० । ७. द्वितीयः श्रवणे म० ।
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