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पद्मपुराणे
किं तेऽपकृतमस्माभिः किं वा तेन प्रियं कृतम् । कथ्यतां गुह्यकाधीश किञ्चिदप्यणुमात्रकम् ॥८८॥ कुटिलां भृकुटीं कृत्वा भीमां सन्ध्यारुणेऽलिके' । क्रुद्धोऽसि येन यक्षेन्द्र विना कार्यं समागतः ॥८१॥ अर्ध काचपात्रेण तस्य दत्वातिसाध्वसः । कपिध्वजाधिपोऽवोचत् कोपो यक्षेन्द्र ! मुच्यताम् ॥६०॥ पश्य त्वं समभावेन मद्बलस्य निजां स्थितिम् । लङ्काबलार्णवस्यापि साक्षादीतिस्वमीयुषः ॥११॥ तथाप्येव प्रयतोऽस्य वर्त्तते रक्षसां विभोः । केनायं पूर्वकः साध्यः किं पुनर्बहुरूपया ॥ १२ ॥ संक्रुद्धस्य मृधे तस्य स्खलन्त्यभिमुखा नृपाः । जैनोक्तिलब्धवर्णस्य प्रवादे वादिनो यथा ||३३|| तस्मात्मार्पितात्मानं क्षोभयिष्यामि रावणम् । यत्साधयति नो विद्यां यथा सिद्धिं कुदर्शनः ॥ ६४ ॥ तत्यविभवा भूत्वा येन नाथेन रक्षसाम् । समं युद्धं करिष्यामो विषमं जायतेऽन्यथा ॥ ६५ ॥ पूर्णभद्रस्ततोऽवोदस्त्वेवं किं' 'तु पीडनम् । कृत्यं नाण्यपि लङ्कायां साधो जीर्ण तृणेष्वपि ॥ ६६ ॥
मेण रावणाङ्गस्य वेदनाद्यविधानतः । क्षोभं कुरुत मन्ये नु दुःखं क्षुभ्यति रावणः ॥६७॥ Yeaमुक्वा प्रसन्नादौ तौ भव्यजनवत्सलौ । भक्तौ श्रमणसङ्घस्य वैयावृत्यसमुद्यतौ ॥१८॥ 'शशाङ्कवदनौ राजन् यचाणां परमेश्वरौ । अभिनन्दितपद्माद्यावन्तर्द्धि सानुगौ गतौ ॥१६॥
रामचन्द्रकी प्राणों की अधिक, महागुणोंकी धारक एवं शीलत्रत रूपी अलंकारको धारण करने वाली प्रियाको छसे हरा है उस रावणके ऊपर तुम दया क्यों कर रहे हो ? ॥ ६६-६७ || हम लोगोंने तुम्हारा क्या अपकार किया है और उसने क्या उपकार किया है सो हे यक्षराज ! कुछ थोड़ा भी जो कहो ॥८८॥ जिससे संध्या के समान लाल लाल ललाट पर कुटिल तथा भयंकर भृकुटि कर कुपित हुए हो तथा विना कार्य ही यहाँ पधारे हो ॥८६॥ तदनन्तर अत्यन्त भयभीत सुग्रीवने सुवर्णमय पात्रसे उसे अर्घ देकर कहा कि हे यक्षराज ! क्रोध छोड़िए ||१०|| आप समभावसे हमारी सेना तथा साक्षात् ईतिपनाको प्राप्त हुए लंकाके सैन्य सागर की भी स्थिति देखिए । देखिए दोनों में क्या अन्तर है ॥ ६१ ॥
इतना सब होने पर भी राक्षसोंके अधिपति रावणका यह प्रयत्न जारी है। यह रावण पहले भी किसके द्वारा साध्य था ? और फिर बहुरूपिणी विद्याके सिद्ध होने पर तो कहना ही क्या है ? || २ || जिस प्रकार जिनागमके निपुण विद्वान् के सामने प्रवादी लोग लड़खड़ा जाते हैं उसी प्रकार युद्धमें कुपित हुए रावणके सामने अन्य राजा लड़खड़ा जाते हैं ||१३|| इसलिए इस समय मैं क्षमाभावसे बैठे हुए रावणको क्षोभयुक्त करूंगा क्योंकि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि मनुष्य सिद्धिको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार क्षोभयुक्त साधारण पुरुष भी विद्याको सिद्ध नहीं कर पाता ||१४|| रावणको क्षोभित करनेका हमारा उद्देश्य यह है कि हम तुल्य विभवके धारक हो उसके साथ युद्ध करेंगे अन्यथा हमारा और उसका युद्ध विषम युद्ध होगा ॥१६५॥
तदनन्तर पूर्णभद्रने कहा कि ऐसा हो सकता है किन्तु हे सत्पुरुष ! लङ्कामें जीर्णो भी अणुमात्र भी पीड़ा नहीं करना चाहिए || ६६ ॥ वेदना आदिक न पहुँचा कर रावणके शरीरकी कुशलता रखते हुए उसे क्षोभ उत्पन्न करो। परन्तु मैं समझता हूँ कि रावण बड़ी कठिनाई से क्षोभको प्राप्त होगा ॥ ६७॥ इस प्रकार कह कर जिनके नेत्र प्रसन्न थे, जो भव्य जोंपर स्नेह करने वाले थे, भक्त थे, मुनि संघकी वैयावृत्य करनेमें सदा तत्पर रहते थे, और चन्द्रमाके समान उज्ज्वल मुखके धारक थे ऐसे यक्षोंके दोनों अधिपति रामकी प्रशंसा करते हुए
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१. अभि = भाले । २. किं नु म० । ३. नाद्यापि म० । ४ एवमुक्तौ मन
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