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पद्मपुराणे
सन्त्रस्तहरिणीनेत्रा सस्तकेशकलापिका। वक्षः प्राप्य प्रियस्यान्या बभूवोत्कम्पितोज्झिता ||५८।। एतस्मिनन्तरे दृष्टा लोकं भयपरायणम् । शासनान्तर्गता देवाः शान्तिप्रासादसंश्रिताः ॥५६॥ स्वपक्षपालनोयुक्ता करुणासक्तमानसाः । प्रातिहार्य द्रुतं कत्तं प्रवृत्ता भावतत्पराः ॥६०॥ उत्पत्य भैरवाकाराः शान्तिचैत्यालयादमी । गृहीतविविधा कल्पा दंष्ट्रालीसङ्कटाननाः ।।६।। मध्याह्नार्कदुरीक्षाक्षाः क्षुब्धाः क्रोधोद्वमद्विषाः । दष्टाधरा महाकाया नानावर्णमहारवाः ।।६२॥ देहदर्शनमात्रेण विकारविषमैर्युताः । वानराङ्कबलं भङ्ग निन्युरत्यन्तविह्वलम् ॥६३॥ पणं सिंहाः क्षणं वह्निः क्षणं मेघाः क्षणं द्विपाः । क्षणं सर्पाः क्षणं वायुस्ते भवन्ति क्षणं नगाः ॥६॥ अभिभूतानिमान् ज्ञात्वा देवैः शान्तिगृहाश्रयः । जिनालयकृतावासास्तेषामपि हिते रताः ॥६५॥ देवाः समागता योदधं विक्रताकारवर्तिनः । निजस्थानेषु तेषां हि ते वसन्त्यनुपालकाः ॥६६।। प्रवृत्ते तुमुले करे गीर्वाणानां परस्परम् । आसीद्धावस्वभावेऽपि सन्देहो विकृति प्रति ॥६७।। सीदतः स्वान् सुरान् दृष्टा बलिनश्च परामरान् । कपिकेतूंश्च संदृष्टान्पुनलंङ्कामुखं स्थितान् ॥६८।। महान्तं क्रोधमापन्नः प्रभावपरमः सुधीः । यक्षेशः पूर्णभद्राख्यो मणिभद्र मिदं जगी ॥६६॥ एताम्पश्य कृपामुक्तान शाखाकेसरिकेतनान् । जानन्तोऽपि समस्तानि शास्त्राणि विकृतिं गता ॥७॥ स्थित्याचारविनिमुक्तान त्यक्ताहारं दशाननम् । योगसंयोजितात्मानं देहेऽपि रहितस्पृहम् ॥७॥
जानेसे जो मोतियोंके समूहकी वर्षा कर रही थी ऐसी कोई एक स्त्री मेघकी रेखाके समान बड़े वेगसे कहीं भागी जा रही थी ।।५७॥ भयभीत हरिणीके समान जिसके नेत्र थे, तथा जिसके बालोंका समूह बिखर गया था ऐसी कोई एक स्त्री पतिके वक्षःस्थलसे जब लिपट गई तभी उसकी कँपकँपी छूटी ॥५८।।।
तदनन्तर इसी बीचमें लोगोंको भयभीत देख शान्ति जिनालयके आश्रयमें रहने वाले शासन देव, अपने पक्ष की रक्षा करनेमें उद्यत तथा दयालु चित्त हो भाव पूर्ण मनसे शीघ्र ही द्वार-पालपना करनेके लिए प्रवृत्त हुए अर्थात् उन्होंने किसीको अन्दर नहीं आने दिया ॥५६।। जिनके आकार अत्यन्त भयङ्कर थे, जिन्होंने नाना प्रकारके वेष धारण कर रक्खे थे, जिनके मुख दाँढोंकी पङ्क्तिसे व्याप्त थे, जिनके नेत्र मध्याह्नके सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य थे, जो क्षुभित थे, क्रोधसे विष उगल रहे थे, ओंठ चाप रहे थे, डील-डौलके बड़े थे, नाना वर्णके महाशब्द कर रहे थे-और जो शरीरके देखने मात्रसे विषम विकारोंमे युक्त थे ऐसे वे शासन देव शान्ति जिनालयसे निकलकर वानरोंको सेना पर ऐसे झपटे कि उसे अत्यन्त विह्वल कर क्षण भरमें खदेड़ दिया ॥६०-६३॥ वे शासन देव क्षण भरमें सिंह, क्षण भरमें अग्नि, क्षण भर में मेघ, क्षण भरमें हाथी, क्षण भरमें सर्प, क्षण भर में वायु और क्षण भरमें पर्वत बन जाते थे ॥६४।। शान्ति जिनालयके आश्रयमें रहने वाले देवोंके द्वारा इन वानरकुमारोंको पराभूत देख; वानरोंके हितमें तत्पर रहने वाले जो देव शिबिरके जिनालयों में रहते थे वे भी विक्रियासे आकार बदल कर युद्ध करने के लिए आ पहुँचे सो ठीक ही है क्योंकि जो अपने स्थानों में निवास करते हैं देव लोग उनके रक्षक होते हैं ।।६५-६६॥ तदनन्तर देवोंका परस्पर भयङ्कर युद्ध प्रवृत्त होने पर उनकी विकृति देख परमार्थ स्वभावमें भी सन्देह होने लगा था ।।६७।।
__ अथानन्तर अपने देवोंको पराजित होते, दूसरे देवोंको बलवान् होते और अहङ्कारी वानरोंको लङ्काके सन्मुख प्रस्थान करते देख महाक्रोधको प्राप्त हुआ परमप्रभावी बुद्धिमान पूर्णभद्र नामका यक्षेन्द्र मणिभद्र नामक यक्षसे इस प्रकार बोला ।।६८-६६॥ कि इन दया हीन वानरोंको तो देखो जो सब शास्त्रोंको जानते हुए भी विकारको प्राप्त हुए हैं ॥७०।। ये लोक मर्यादा
१. भावः स्वभावेऽपि म०, ज०, ख.1
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